10 दिसंबर, 2012
08 दिसंबर, 2012
लिखने को बेकरार
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लिखने को बेकरार  
लेखनी रुक न पाएगी 
पुरवैया के झोंकों सी 
बढती जाएगी
बढती जाएगी
सर्द हवा के झोंकों का 
अहसास कराएगी
अहसास कराएगी
जब कभी गर्मीं होगी 
प्रभाव तो होगा 
मौसम के परिवर्तन की 
अनुभूति भी होगी 
बारिश की बूंदाबांदी 
कभी भूल न पाएगी
कभी भूल न पाएगी
वे सारे अनुभव 
उन बूंदों के स्पर्श को 
सब तक पहुंचाएगी |
सब तक पहुंचाएगी |
यहाँ वहाँ जो हो रहा
 छुंअन उसकी महसूस 
होगी 
प्रलोभन भी होगा 
पर वह बिकाऊ नहीं है
  बिक न पाएगी |
अपने निष्पक्ष विचारों का
 बोध कराएगी 
यही है धर्म  उसका
 जिस पर है गर्व उसे 
वह है स्वतंत्र 
अपना धर्म निभाएगी |
आशा
आशा
06 दिसंबर, 2012
03 दिसंबर, 2012
प्रभाव परिवर्तन का
मन शंकाओं से भरता जाता 
यह  परिवर्तन हुआ कैसे 
छोर नजर नहीं आता 
फिर भी परेशान नहीं हूँ 
खोजना चाहती हूँ उसे 
जो है असली कारक और कारण 
इस होते परिवर्तन का 
क्या देखा उसने ऐसा 
जो खिचा चला आया 
बिना जाने अपनापन  जताया 
कहीं से रिश्ता भी खोज लाया 
वह कितना सही कितना गलत 
यह तो नहीं मालूम 
पर लगता कोई गहरा छिपा राज 
अचानक प्रेम उमढने में 
कहीं कोई धोखा तो नहीं 
जो छल करे मेरे अनजाने में 
मेरी ममता  से भरे जीवन में  
मुझे कोई भी परिवर्तन
रास नहीं आता
समाधान मन की शंका का
हो नहीं पाता|
आशा
मुझे कोई भी परिवर्तन
रास नहीं आता
समाधान मन की शंका का
हो नहीं पाता|
आशा
30 नवंबर, 2012
आधा तीतर आधा बटेर
जाग जाग रातें  काटीं
मुश्किलें किसी से न बांटीं
कभी खोया -खोया रहा
कभी जार जार रोया
कठिनाइयां बढती गईं
कमीं उनमें न आई
सुबह और शाम
मंहगाई का बखान
रात में आते
स्वप्न में भी गरीबी
फटे कपडे और उधारी
वह बेरोजगार डिग्री धारी
हाथ न मिला पाया
भ्रष्टाचार के दानव से
सोचता दिन रात
जाए तो जाए कहाँ
वह कागज़ का टुकड़ा
मजदूरी भी करने न देता
जब भी लाइन में लगा
कहा गया "जाओ बाबू
यह तुम्हारे बस का नहीं
क्यूँ की तुम
आम आदमीं नहीं "
इस डिग्री ने तो कहीं का न छोड़ा
ना ही कुछ बन पाया
ना ही आम आदमीं से जुड़ा
आधा तीतर आधा बटेर
मात्र बन कर रह गया
मन में बहुत ग्लानी हुई
समाधान समस्या का नहीं
यह कैसे समझाए की
वह भी है एक आम आदमीं
कर्ज के बोझ से दबा है
इस डिग्री के लिए
जो अभी तक चुका नहीं
तभी तो काम की तलाश में
दर दर भटक रहा है |
आशा
मुश्किलें किसी से न बांटीं
कभी खोया -खोया रहा
कभी जार जार रोया
कठिनाइयां बढती गईं
कमीं उनमें न आई
सुबह और शाम
मंहगाई का बखान
रात में आते
स्वप्न में भी गरीबी
फटे कपडे और उधारी
वह बेरोजगार डिग्री धारी
हाथ न मिला पाया
भ्रष्टाचार के दानव से
सोचता दिन रात
जाए तो जाए कहाँ
वह कागज़ का टुकड़ा
मजदूरी भी करने न देता
जब भी लाइन में लगा
कहा गया "जाओ बाबू
यह तुम्हारे बस का नहीं
क्यूँ की तुम
आम आदमीं नहीं "
इस डिग्री ने तो कहीं का न छोड़ा
ना ही कुछ बन पाया
ना ही आम आदमीं से जुड़ा
आधा तीतर आधा बटेर
मात्र बन कर रह गया
मन में बहुत ग्लानी हुई
समाधान समस्या का नहीं
यह कैसे समझाए की
वह भी है एक आम आदमीं
कर्ज के बोझ से दबा है
इस डिग्री के लिए
जो अभी तक चुका नहीं
तभी तो काम की तलाश में
दर दर भटक रहा है |
आशा
27 नवंबर, 2012
आज याद आया
आज याद आया
 वह किस्सा पुराना 
जो ले गया उस मैदान में 
जहां बिताई कई शामें 
 गिल्ली डंडा खेलने में 
कभी मां ने समझाया 
कभी डाटा धमकाया 
पर कारण नहीं बताया |
मैंने सोचा क्यूँ न खेलूँ 
अकारण हर बात क्यूँ मानू ?
इसी जिद ने थप्पड़ से 
स्वागत भी करवाया 
रोना धोना काम न आया 
माँ का कहना 
वी .टो. पावर हुआ 
वहाँ जाना बंद हो गया  
घर में कैरम  शुरू हुआ 
आज सोचती हूँ
 कारण क्या रहा होगा 
जाने कब सयानी हुई 
मुझे याद नहीं |
25 नवंबर, 2012
उलझन
कई  बार विचारों में उलझी 
पग आगे बढाए पर
हिचकिचाए 
थम गए एक मोड
पर अकारण 
उलझन बढ़ी आशंका
जन्मी 
कहीं कोइ
अनर्थ न हो जाए 
मन पर से
जाला झटका 
मार्ग
प्रशस्त किया अपना 
पर बिल्ली
राह काट गयी 
झुक कर एक
पत्थर उठाया 
आगे फेंक आगे
बढ़ी 
एकाएक छींक आ गयी
एकाएक छींक आ गयी
शुभ अशुभ के
चक्र में फसी 
अनजाना भय  हावी हुआ 
मन को बार
बार समझाया 
पर वह स्थिर
न हो पाया 
सोचा बापिस लौट चलूँ 
फिर खुद पर
ही हंसी आई 
इतना पढना
व्यर्थ लगा 
यदि वहम से
न  बच पाई 
मन कडा कर चल पड़ीं
मन कडा कर चल पड़ीं
बेखौफ मंजिल
तक पहुँची 
अंधविश्वास से ना घिरी |
अंधविश्वास से ना घिरी |
आशा 
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