30 अप्रैल, 2015

सीमेंट के जंगल में (मजदूर बेचारा )

मजदूर दिवस पर :-

सीमेंट के जंगल में
मशीनों के उपयोग ने
किया उसे बेरोजगार
क्या खुद खाए
क्या परिवार को खिलाए
आज मेहनतकश इंसान
परेशान दो जून की रोटी को
यह कैसी लाचारी
बच्चों का बिलखना
सह नहीं पाता
खुद बेहाल हुआ जाता
जब कोई हल न सूझता
पत्नी पर क्रोधित होता
मधुशाला की राह पकड़ता
पहले ही कर्ज कम नहीं
उसमें और वृद्धि करता
जब लेनदार दरवाजे आये
अधिक असंतुलित हो जाता
हाथापाई कर बैठता
जुर्म की दुनिया में
प्रवेश करता |
आशा

29 अप्रैल, 2015

है वह ऐसा ही

 
शून्य में ताकता एक टक
मुस्कुराता कभी सहम जाता 
गुमसुम सा हो जाता 
चुप्पी साध लेता |
चाहे जहां घूमता फिरता
 बिना किसी को बताए 
बच्चों की चुहल से त्रस्त होता
पर कुछ न कहता  |
लोगों ने उसे पागल समझा 
रोका न टोका 
कुछ भी न कहा |
आकाश से टपकती जल की बूँदें 
उसे उदास कर जातीं 
सोचता वे किसी
 विरहणी के अश्रु तो नहीं  |
उन्हें देख आंसू बहाता 
प्रकृति का एक अंश 
जाने कहाँ खो जाता 
वह सोच  नहीं पाता  |
कुहू कुहू कोयल की सुनता 
अमराई में उसे खोजता 
वह हाथ न आती उड़ जाती 
वह कारण खोज न पाता |
था यह खेल प्रकृति का 
या उसके मन की उलझन
समझ नहीं पाता
अधिक उलझता जाता  |
बैठा है आज भी गुमसुम 
विचारों का जाल बन रहा 
ना हंसना हंसाना 
ना ही संभाषण किसी से |
है वह ऐसा ही सब जानते
ना जाने यह तंद्रा कब टूटेगी 
वर्तमान में जीने की चाह 
मन में जन्म लेगी |








27 अप्रैल, 2015

कहीं तो गुलाब हो

क्यारी गुलाब की के लिए चित्र परिणाम


क्यारी गुलाब की के लिए चित्र परिणाम
है यह पुष्पों  की बगिया
कहीं तो गुलाब हो 
महक हो या ना हो 
रंग रूप तो हो
 कोई क्यारी हो ऐसी
जहां गुलाब ही गुलाब हों
कांटों से सुरक्षित रहें 
खुद की पहचान हो
भीड़ तंत्र में खो जाये यदि 
महक ही पहचान हो 
पहचान भी ऐसी कि
 खोजना सरल हो 
है कार्य कठिन
 सहज  नहीं
है शिद्दत आवश्यक 
खोज के लिए 
जब मन चाहा  मिल जाए
जीवन रंगीन हो
रंग बिरंगे पुष्पों में
वह लाजबाब हो 
महक हो नाम हो 
परिपूर्णता लिए हो |
आशा





25 अप्रैल, 2015

छाँव की तलाश में



पतझड़ का मौसम के लिए चित्र परिणाम
एक अकेला बियावान में
खोज रहा
पल दो पल की छाँव
है थका हुआ उत्साह रहित
 मंजिल से अनजान
वेग  वायु का  झेल रहा
 संतुलन कभी खोता
फिर सम्हलता
है पतझड़ का आलम ऐसा
खड़े ठूंठ पर्ण विहीन
धरा पर पसरे  पीत पर्ण
सूखे साखे जल स्त्रोत  
सब ने नकार दिया  
दो बूंद जल तक न मिला
कंठ सूखने लगा
सांस रुकती सी लगती
क्या करे वह श्री विहीन
जूझ रहा है खुद से
आस पास के हालात से
छाँव की तलाश में |
आशा

24 अप्रैल, 2015

उम्र की ढलान पर


तिल तिल क्षय होता जीवन
घटती जातीं  साँसें
नयन व्याकुल रहते फिर भी
उसकी आहट पाने को
अनजाने में हुई भूल से  
ठेस उसे पहुंची गहरी
राह अवरुद्ध  ना कर पाईं
मिन्नतें अनगिनत भी
वह रुका नहीं चला  गया
खोज खोज के हारी
जाने कहाँ खो गया
दुनिया की चकाचौंध में
हुआ दृष्टि  से ओझिल
पर दिल से दूर नहीं
हर क्षण याद उसकी
बेकल किये रहती है
कैसे मन को समझाऊँ
समझ नहीं पाती
हर आहट दरवाजे की
उसी की नजर आती  
वह ना आया आज तक
पलट कर भी न देखा
घाव नासूर होने लगे
उम्र की ढलान पर |
आशा