एक और आँखों देखा सच तथा उससे बुना शब्द जाल !
शायद आपको पसंद आए :-
जब तुम उसे इशारे करते हो ,
शायद कुछ कहना चाहते हो ,
कहीं उसकी सूरत पर तो नहीं जाते ,
वह इतनी सुंदर भी नहीं ,
जो उसे देख मुस्कुराते हो ,
उसे किस निगाह से देखते हो ,
यह तो खुद ही जानते हो ,
पर जब उसकी निगाह होती तुम पर ,
अपने बालों को झटके देते हो ,
किसी फिल्मी हीरो की तरह ,
अपना हर अंदाज बदलते हो ,
कभी रंग बिरंगे कपड़ों से ,
और तरह-तरह के चश्मों से ,
उसको आकर्षित करते हो ,
गली के मोड़ पर,
घंटों खड़े रह कर ,
बाइक का सहारा ले कर ,
कई गीत गुनगुनाते हो ,
या गुटका खाते हो ,
तुम पर सारी दुनिया हँसती है ,
तुम्हारी यह बेखुदी देख ,
मुझको भी हँसी आ जाती है |
आशा
14 जून, 2010
13 जून, 2010
कलम
मैं कलम हूँ ,
गति मेरी है अविराम ,
तुम मुझे न जान पाओगे ,
जहाँ कहीं भी तुम होगे ,
साथ अपने मुझे पाओगे ,
जीवन में जितने व्यस्त हुए ,
तब भी न मुझसे दूर हुए ,
मेरे बिना तुम अधूरे हो ,
स्वप्न कैसे साकार कर पाओगे |
आशा
गति मेरी है अविराम ,
तुम मुझे न जान पाओगे ,
जहाँ कहीं भी तुम होगे ,
साथ अपने मुझे पाओगे ,
जीवन में जितने व्यस्त हुए ,
तब भी न मुझसे दूर हुए ,
मेरे बिना तुम अधूरे हो ,
स्वप्न कैसे साकार कर पाओगे |
आशा
12 जून, 2010
तुम्हारे वादे और मैं
तुम्हारे वादों को ,
अपनी यादों में सजाया मैंने ,
तुम तो शायद भूल गए ,
पर मैं न भूली उनको ,
तुम्हारे आने का
ख्याल जब भी आया ,
ठण्ड भरी रात में
अलाव जलाया मैंने ,
उसकी मंद रोशनी में ,
हल्की-हल्की गर्मी में ,
तुम्हारे होने का ,
अहसास जगाया मन में ,
हर वादा तुम्हारा ,
मुझ को सच्चा लगता है ,
पर शक भी कभी ,
मन के भावों को हवा देता है ,
तुम न आए ,
बहुत रुलाया मुझको तुमने ,
ढेरों वादों का बोझ उठाया मैंने ,
ऊंची नीची पगडंडी पर ,
कब तक नंगे पैर चलूँगी ,
शूल मेरे पैरों में चुभेंगे ,
हृदय पटल छलनी कर देंगे ,
पर फिर से यादें तेरे वादों की,
मन के घाव भरती जायेंगी ,
मन का शक हरती जायेंगी ,
कभी-कभी मन में आता है ,
मैं तुम्हें झूठा समझूँ ,
या सनम बेवफा कहूँ ,
पर फिर मन यह कहता है ,
शायद तुम व्यस्त अधिक हो ,
छुट्टी नहीं मिल पाती है ,
या कोई और मजबूरी है ,
वहीं रहना जरूरी है ,
मुझको तो ऐसा लगता है ,
इसीलिए यह दूरी है |
आशा
अपनी यादों में सजाया मैंने ,
तुम तो शायद भूल गए ,
पर मैं न भूली उनको ,
तुम्हारे आने का
ख्याल जब भी आया ,
ठण्ड भरी रात में
अलाव जलाया मैंने ,
उसकी मंद रोशनी में ,
हल्की-हल्की गर्मी में ,
तुम्हारे होने का ,
अहसास जगाया मन में ,
हर वादा तुम्हारा ,
मुझ को सच्चा लगता है ,
पर शक भी कभी ,
मन के भावों को हवा देता है ,
तुम न आए ,
बहुत रुलाया मुझको तुमने ,
ढेरों वादों का बोझ उठाया मैंने ,
ऊंची नीची पगडंडी पर ,
कब तक नंगे पैर चलूँगी ,
शूल मेरे पैरों में चुभेंगे ,
हृदय पटल छलनी कर देंगे ,
पर फिर से यादें तेरे वादों की,
मन के घाव भरती जायेंगी ,
मन का शक हरती जायेंगी ,
कभी-कभी मन में आता है ,
मैं तुम्हें झूठा समझूँ ,
या सनम बेवफा कहूँ ,
पर फिर मन यह कहता है ,
शायद तुम व्यस्त अधिक हो ,
छुट्टी नहीं मिल पाती है ,
या कोई और मजबूरी है ,
वहीं रहना जरूरी है ,
मुझको तो ऐसा लगता है ,
इसीलिए यह दूरी है |
आशा
10 जून, 2010
दायरा सोच का
दायरा सोच का कितना विस्तृत
कितना सीमित
कोई जान नहीं पाता
उसे पहचान नहीं पाता
सागर सा विस्तार उसका
उठती तरंगों सा उछाल उसका
गहराई भी समुंदर जैसी
अनमोल भावों का संग्रह
सागर की अनमोल निधि सा |
सोच सीमित नहीं होता
उसका कोई दायरा नहीं होता
होता वह हृदय से प्रस्फुटित
मौलिक और अनंत होता
पृथ्वी और आकाश जहाँ मिलते
क्षितिज वहीं होता है
सोच क्षितिज सा होता है |
कई सोचों का मेल
बहुत दूर ले जाता है
सीमांकित नहीं किया जाता |
सोच सोच होता है
कोई नियंत्रण नहीं होता
स्वप्न भी तो सोच का परिणाम हैं
वे कभी सही भी होते हैं
कभी कल्पना से भरे हुए
सपनों से भी होते हैं
कुछ सोच ऐसे भी हैं
दिल के दरिया में डूबते उतराते
कभी गहरे पैठ जाते
वे जब भी बाहर आ जाते
किसी रचना में
रचा बसा खुद को पाते
और अमर वे हो जाते |
आशा
09 जून, 2010
जड़ता मन की
बहुत खोया, थोड़ा पाया ,
खुद को बहुत अकेला पाया ,
सबने मुँह मोड़ लिया ,
नाता तुझसे तोड़ लिया ,
पीड़ा से दिल भर आया ,
फिर भी कोई प्रतिकार न किया ,
दरवाजा मन का बंद किया ,
बातें कई मन में आईं ,
पर अधरों तक आ कर लौट गईं ,
क्यूँ कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता नहीं है |
आँखें सूनी-सूनी हैं ,
कुछ बोल नहीं पातीं ,
मन के भेद खोल नहीं पाती,
क्यूँ कि उनमें नमी नहीं है |
तू नारी है तेरा अस्तित्व नहीं है ,
तेरी किसी को जरूरत नहीं है ,
क्यूँ कि तू जागृत नहीं है ,
सचेत नहीं है |
तू कितनी सक्षम है ,
इसका भी तुझे भान नहीं है ,
अपनी पहचान खो चुकी है ,
चमक दमक जो दिखती है ,
वह भी शायद खोखली है ,
सारी उम्र बीत गई ,
कुछ ही शेष रही है ,
वह भी बीत जायेगी ,
यही सोच तेरा ,
साथ समय के चलने नहीं देता ,
तुझे उभरने नहीं देता ,
सचेत होने नहीं देता ,
क्यूँ कि तुझे जैसे रखा ,
वैसे ही रही तू |
अहम् की तुष्टि में व्यस्त ,
कोई तुझे समझ नहीं पाता,
साथ तेरे चल नहीं पाता ,
क्यूँ कि वह सोचता है ,
दूसरों कि तरह सक्षम नहीं है ,
तू जागृत नहीं है |
यदि कोई तुझे समझाना चाहे ,
परिवर्तन तुझ में लाना चाहे ,
समयानुकूल बनाना चाहे ,
दरवाजे पर दस्तक दे भी कैसे ,
तेरे मन के दरवाजे पर ,
ताला लगा है ,
जिसकी चाबी न जाने कहाँ है |
आशा
खुद को बहुत अकेला पाया ,
सबने मुँह मोड़ लिया ,
नाता तुझसे तोड़ लिया ,
पीड़ा से दिल भर आया ,
फिर भी कोई प्रतिकार न किया ,
दरवाजा मन का बंद किया ,
बातें कई मन में आईं ,
पर अधरों तक आ कर लौट गईं ,
क्यूँ कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता नहीं है |
आँखें सूनी-सूनी हैं ,
कुछ बोल नहीं पातीं ,
मन के भेद खोल नहीं पाती,
क्यूँ कि उनमें नमी नहीं है |
तू नारी है तेरा अस्तित्व नहीं है ,
तेरी किसी को जरूरत नहीं है ,
क्यूँ कि तू जागृत नहीं है ,
सचेत नहीं है |
तू कितनी सक्षम है ,
इसका भी तुझे भान नहीं है ,
अपनी पहचान खो चुकी है ,
चमक दमक जो दिखती है ,
वह भी शायद खोखली है ,
सारी उम्र बीत गई ,
कुछ ही शेष रही है ,
वह भी बीत जायेगी ,
यही सोच तेरा ,
साथ समय के चलने नहीं देता ,
तुझे उभरने नहीं देता ,
सचेत होने नहीं देता ,
क्यूँ कि तुझे जैसे रखा ,
वैसे ही रही तू |
अहम् की तुष्टि में व्यस्त ,
कोई तुझे समझ नहीं पाता,
साथ तेरे चल नहीं पाता ,
क्यूँ कि वह सोचता है ,
दूसरों कि तरह सक्षम नहीं है ,
तू जागृत नहीं है |
यदि कोई तुझे समझाना चाहे ,
परिवर्तन तुझ में लाना चाहे ,
समयानुकूल बनाना चाहे ,
दरवाजे पर दस्तक दे भी कैसे ,
तेरे मन के दरवाजे पर ,
ताला लगा है ,
जिसकी चाबी न जाने कहाँ है |
आशा
08 जून, 2010
इंतजार तुम्हारा
तुम्हारी याद में हर शाम गुजारी मैंने
सारी दुनिया से दूर रहा
रुसवाई का सबब बना
तुम न आये मायूस किया
अपने को मुझ से दूर किया |
न आने के बहाने अनेक
नया बहाना रोज एक
पर समझाना पड़ता मन को
शायद तुम आ जाओ
शायद तुम आ जाओ
इंतजार रहता मुझ को |
गिटार पर कई धुनें बजाईं मैंने
अपलक जाग रातें गुज़ारीं मैंनें
तेरी याद में धुनें आह में न बदल जायें
कहीं मेरी आखें नम न कर जायें |
हाल मेरा सब देख रहे
मुझ पर हँस कर यह सोच रहे
है यह कैसा परवाना
लगता है किसी शमा का दीवाना
मर मिटने का मन बना बैठा
अपनी सुध बुध खो बैठा |
देर कितनी भी हो चाहे
शाम, रात फिर सुबह हो जाये
अनवरत गिटार बजाता रहूँगा
और तुम्हारा इंतजार करूँगा
ये धुनें तुम्हें खींच लायेंगी
मन के तार झंकृत कर जायेंगी |
आशा
,
हाल मेरा सब देख रहे
मुझ पर हँस कर यह सोच रहे
है यह कैसा परवाना
लगता है किसी शमा का दीवाना
मर मिटने का मन बना बैठा
अपनी सुध बुध खो बैठा |
देर कितनी भी हो चाहे
शाम, रात फिर सुबह हो जाये
अनवरत गिटार बजाता रहूँगा
और तुम्हारा इंतजार करूँगा
ये धुनें तुम्हें खींच लायेंगी
मन के तार झंकृत कर जायेंगी |
आशा
,
07 जून, 2010
संग्रह यादों का
कुछ तो ऐसा है तुममें
तुम्हारी हर बात निराली है
कोई भावना जागृत होती है
एक कविता बन जाती है
लिखते-लिखते कलम न थकती
हर रचना कुछ कह जाती
मुझको स्पंदित कर जाती
है गुण तुममें सच्चे मोती सा
निर्मल सुंदर चारु चंद्र सा
एक-एक मोती सी
तुम्हारी लिखी हर कविता
कैसे चुनूँ और पिरोऊँ
फिर उनसे माला बनाऊँ
माला में कई होंगे मनके
किसी न किसी की कहानी कहेंगे
संग्रह उन सब का करूँगा
और रूप पुस्तक का दूँगा
हर कृति कुछ बात कहेगी
मन को भाव विभोर करेगी
तुम्हारी याद मिटने ना दूँगा
हर किताब सहेज कर रखूँगा |
आशा
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