25 जुलाई, 2014

अहम्






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मैं आज अपनी ९०० वी पोस्ट आप सब तक पहुंचा रही हूँ |आशा है आपको पसंद आएगी |

गैरों से मेल अपनों से गिला
है बात बहुत अजीब सी
ना हो  तुम किसी की
ना कोई तुम्हारा मीत मिला |
 यह तुमने क्या किया
किस बात का बदला लिया
मैं निरीह देखता रहा
गिला शिकवा न किया |
क्यूं रूठीं कारण न बताया
यदि हाथ मिला लिया होता 
कुछ तो हल निकलता 
आलम उदासी का न होता |
जानता हूँ हो रूप गर्विता
अभिमानी हो  पाषाणी नहीं
पर निष्ठुर हो जान नहीं पाया 
तुम्हें पहचान नहीं पाया |
जब पीछे से कोई वार करेगा
तभी जान पाओगी
 कितना दुःख होता है
ऐसे किये व्यवहार से  |
वार चाहे जैसा भी हो
अस्त्र का या शब्दों का
शूल सा चुभता है
जीना दूभर होता है |
जब अहम् टकराते  है
प्रतिउत्तर नहीं सूझता
अस्तित्व सिमट जाता है
मन के किसी कौने में |
आशा

24 जुलाई, 2014

हरियाली

सावन का दर्द :-
जल बरसा
महाकाल प्रसन्न
मन सरसा |

सावन सूखा
सूखे नदी तालाव
खेत बेहाल |

प्यासी धरती
दरारें होने लगीं
नहीं बरखा |
आशा
 ·

22 जुलाई, 2014

ज़रा सोच कर देखो



कहती हूँ एक बात ज़रा सोच कर देखो 
ऐसी कोई  छड़ी नहीं जो मंहगाई हटाए 
ना  कोई  जादू  समस्या का निदान कर पाए
समय के साथ है सम्बन्ध उसका
धीमी गति है स्वभाव इसका
धैर्य है आवश्यक नियंत्रण के लिए
समग्र प्रयास ही  पहुंचेगा उस तक |
मंथर गति होती  उत्तम
किसी भी परिवर्तन के लिए
अति उत्साह नहीं सही कदम
समस्या के निदान के लिए |
कार्य जो कई  साल में न हो पाया
अल्प अवधि में हो कैसे संभव
यह न्याय नहीं लगता
किसी के आकलन के लिए  |
रुको ठहरो और हम कदम बनो
जब सहस्त्र कर्मठ हाथ एक साथ होंगे
सकारात्मक सोच को अंजाम देंगे
तभी सफलता मिल पाएगी
मंहगाई पर रोक लगेगी |

20 जुलाई, 2014

जलन तुझसे


 हो रही जलन वर्षा तुझसे
दूर हो कर भी
आशा  से तुझे  देखता
सारा देश याद करता तुझे
हम जैसों की
कोई  कीमत नहीं
चाहे कुछ भी करें
अच्छा हो या बुरा
प्रशंसनीय या विद्रुप भरा
कारण है बस एक
हम ठहरे  आम आदमी
घर में बंध कर रह गए
  कुछ विशिष्ट कर न सके
खुद में सिमट कर रह गए |
आशा

19 जुलाई, 2014

मेरा देश

(१)
स्वर्ण चिड़िया
था कहलाता कभी
भारत मेरा
है बदहाल आज
वही जीवन यहाँ |
(२)
हुआ स्वाधीन
परतंत्र नहीं है
देश है  मेरा
फिर भी बदहाल
यहाँ जिंदगी आज |
(३)
हैं नौनिहाल
देश के कर्णधार
 भविष्य दृष्टा
आशा जुड़ी उनसे
सब को बेशुमार |
(४)
हर वर्ष सा
झंडा वंदन किया
मिठाई बटी
तिरंगा फहराया
पर मन उदास  |
सधन्यवाद
आशा लता सक्सेना

16 जुलाई, 2014

झील सी गहरी आँखें







झील सी गहरी नीली आँखें
खोज रहीं खुद को ही
नीलाम्बर में धरा पर
रात में आकाश गंगा में |
उन पर नजर नहीं टिकती
कोई उपमा नहीं मिलती
पर झुकी हुई निगाएं
कई सवाल करतीं |
कितनी बातें अनकही रहतीं
प्रश्न हो कर ही रह जाते
उत्तर नहीं मिलते
अनुत्तरित ही रहते |
यदि कभी संकेत मिलते
आधे अधूरे होते
अर्थ न निकल पाता
कोशिश व्यर्थ होती  पढने की |
पर मैं खो जाता  
ख्यालों की दुनिया में
मैं क्यूं न डुबकी लगाऊँ
उनकी गहराई में |
पर यह मेरा भ्रम न हो
मेरा श्रम व्यर्थ न हो
मुझे पनाह मिल ही जाएगी
नीली झील सी  गहराई में |
आशा