17 जून, 2015
16 जून, 2015
सोच विद्यार्थी का
उत्साह की सीमा न थी
नया बस्ता नई पुस्तकें
खोलने की जल्दी थी |
नए गणवेश में सजे थे
नया लंच बॉक्स भी लिए थे
खुशी का ठिकाना न था
नई कक्षा में जाना था |
फिर भी मिल ही गए
यहाँ भी नए पुराने मित्र
बातों का सिलसिला
थमने का नाम न लेता था |
घंटी की आवाज सुनी
टूटी तंद्रा पहुचे प्रार्थना कक्ष में
टूटी तंद्रा पहुचे प्रार्थना कक्ष में
वही उद्बोधन घिसापिटा
सुनते सुनते उकताने लगे |
सोचा जब सभी कुछ नया था
फिर भाषण पुराना क्यूं
कल से फिर वही शिक्षक होंगे
वही कक्षा कार्य वही डांट |
क्या कोई तरीका नहीं है
नए ढंग से अध्यन का
हर क्षेत्र में परिवर्तन दीखते
फिर शिक्षा में क्यूं नहीं ?
आशा
15 जून, 2015
14 जून, 2015
है कितना अंतर
है कितना अंतर
कल और आज के सोच में
गहरी खाई हो गई है
विचारों में |
आज भी याद आते है वे लम्हें
जब होते थे बाबा दादी के साथ
नाना नानी मामा मामी से
कितना प्यार मिलता था
बता नहीं पाते शब्दों में |
अच्छा लगता था उनकी सेवा करना
कहानी सुनना
नई नई फरमाइश करना |
वह अपनापन वह ममता अब कहाँ
संवेदना के अभाव में
बोझ नजर आते हैं
घर भी यदि आते
हैं |
अपने आगे और कोई कुछ नहीं
बिना मतलब सम्बन्ध नहीं
सारी अक्ल समाई है
आज की सोच में |
वह सम्मान वृद्धों को मिले
कल्पनातीत लगता है आज
जिसकी अपेक्षा होती है
उन्हें इस उम्र में |
मान
सम्मान तो दूर रहा
घर के एक कौने में भी जगह नहीं
वृद्धाश्रम खोजे जाते बोझ टालने को
अब भार हो कर रह गए है |
भौतिकता वादी इस युग में
रिश्तों की गरिमा खो गई है
अपने सुख दुःख जानते हैं
वृद्धों के कष्ट भूल गए हैं |
भौतिकता वादी इस युग में
रिश्तों की गरिमा खो गई है
अपने सुख दुःख जानते हैं
वृद्धों के कष्ट भूल गए हैं |
आशा
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