08 सितंबर, 2015

तोड़ कमियों का


समस्या का समाधान के लिए चित्र परिणाम
कमियों को मैं क्या गिनाऊँ
 लगता असंभव गणन उनका
हल कोई नहीं दीखता
 उनसे उबरने का
यही क्या कम है
की  अहसास मुझे है
उनसे उत्पन्न समस्याओं का
जब से है वे साथ 
उथल पुथल मन में रहती
बेचेनी बनी रहती
हल तब भी  न मिलते   
किये प्रयास व्यर्थ जाते  
समय बिगड़ता फिर भी  
तोड़ उनका न निकला  
यही बात मुझे सालती
कुछ कर नहीं पाती
कितना भी अच्छा सोचूँ
कहीं चूक हो ही जाती
रेत  हाथों से फिसल जाती  
कमियाँ हावी होने लगतीं
 पश्च्याताप सच्चे मन से
होता तोड़ माना
वह भी न कर पाती
मन मसोस कर रह जाती |
आशा

06 सितंबर, 2015

सावन बीत गया


यह सावन भी बीत गया
 मेंहदी लगी न  हाथों में
रंग बिरंगी हरी चूड़ियाँ
न खनक पाईं  कलाई में
ना ही धानी चूनर पहनी
जो माँ से रंगवाई
तीज पूजी ना पूजी
जानना चाहते  हो क्यूं  ?
मन में था अभाव
मायके और भाई का
कोई न था जो मनुहार करे
स्नेह से बुलाए चलाए
 स्वीकार करे दिल से
उपहार घेवर फेनी का
जल्दी से हाथ बढाए
बड़ी राखी की मांग करे
जिसे अपनी पसंद से लाए  
जाने कितनी घटनाएं 
दृष्टि पटक पर आती जातीं
आँखें नम कर जातीं
चाहता मन लौटना  
बचपन की वीथियों में
खो जाना चाहता
 उन मधुर स्मृतियों में
आज संतोष इसी में है
यादें भर शेष हैं
जिन  पर कोई पहरा नहीं
कोई  भी व्यवधान  नही 
विचारों की निरंतरता में
यादों का साया बना रहता
मुझे दूर तक ले जाता
अपने बचपन में पहुंचाता |  
आशा
  

04 सितंबर, 2015

वैभव का साया

 
कान्हां तुमने कहाँ छिपाया
अदभुद वैभव का साया 

मैंने पीछा करना चाहा 

पर साया हाथ न आया 

है यह कैसी माया 

भेद मुझे क्यूं न बताया 

पूजन अर्चन  पूर्ण  श्रद्धा से 

पर तुम तक पहुँच न पाया 

छप्पन भोग का नैवैध्य चढाया 

माखन मिश्री लाया 

मेरी कमियाँ मैं नहीं जानता 

फिर भी दूरी उनसे चाहता 

मुझे थोड़ी सी बुद्धि देते यदि 

उनसे दूरी बना पाता  

तुम्हारे समीप हो पाता  |
आशा

01 सितंबर, 2015

मैं क्या सोचूँ


मैं क्या सोचूँ
देखा सागर का विस्तार
जल है अपार
फिर भी प्यासा रहा
एक घूट कंठ से न उतरी
मैं क्या सोचूँ |
बेचैन मन
सागर उर्मियों सा
प्रहार पर प्रहार
सह न पाता 
बच  नहीं पाता
मैं क्या सोचूँ |
नदी आतुर
सागर मिलन को
स्वअस्तित्व
 बचा न पाई
समाहित हुई
मैं क्या सोचूँ |
मैं अकिंचन
कहाँ जाऊंगा   
 किनारा कभी न पाऊंगा
सोचता रह जाऊंगा
अभी से क्या सोचूँ |
आशा