आशा के
पालने में झूला
ऊंची से ऊंची पैंग बढ़ाई
मन को फिर भी चैन न आया
तेरा मन क्यूँ घबराया?
निराशा ने डेरा डाला
तेरे मन के आँगन में
शायद इसी लिए उससे
तेरा
मन भाग न पाया |
यही विचलन मन में
ठहराव नहीं जीवन में
किसी
निष्कर्ष पर पहुँच मार्ग
प्रशस्त भी न हो पाया |
कैसे निकले मन की कशमकश से
उलझनों की दुकान से
कहीं तो शान्ति के दर्शन हों
ऊंची पैंगों का कुछ तो प्रभाव हो |
एक ही आशा लगाए हूँ
बारह वर्ष में तो
घूरे के भी दिन फिरते
फिर तेरे नहीं क्यूँ
?
ईश्वर सब देख रहा है
तुझसे क्यूँ है दूरी
उसकी
वरदहस्त जब सर पर होगा
तेरी निराशा का कोहरा छटेगा |
आशा