आशा के
पालने में झूला
ऊंची से ऊंची पैंग बढ़ाई
मन को फिर भी चैन न आया
तेरा मन क्यूँ घबराया?
निराशा ने डेरा डाला
तेरे मन के आँगन में
शायद इसी लिए उससे
तेरा
मन भाग न पाया |
यही विचलन मन में
ठहराव नहीं जीवन में
किसी
निष्कर्ष पर पहुँच मार्ग
प्रशस्त भी न हो पाया |
कैसे निकले मन की कशमकश से
उलझनों की दुकान से
कहीं तो शान्ति के दर्शन हों
ऊंची पैंगों का कुछ तो प्रभाव हो |
एक ही आशा लगाए हूँ
बारह वर्ष में तो
घूरे के भी दिन फिरते
फिर तेरे नहीं क्यूँ
?
ईश्वर सब देख रहा है
तुझसे क्यूँ है दूरी
उसकी
वरदहस्त जब सर पर होगा
तेरी निराशा का कोहरा छटेगा |
आशा
आशा का संचार करती बहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शास्त्री जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 08 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार सर |
हटाएंआत्मचिंतन के लिए प्रेरित करती सुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंबढ़िया कविता
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
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