07 दिसंबर, 2020

समाज देख रहा


                                                           समाज देख रहा मूँद नयन सब

 जो हो रहा जैसा भी हो रहा

बिना सुने और अनुभव करे

निर्णय तक भी पहुँच रहा |

उसकी लाठी है बेआवाज

जब चलेगी हिला कर रख देगी

दहला देगी दिल को

और सारे परिवेश को

केवल बातों के सिवाय

होगा कोई न निकाल |

और अधिक उलझनों की

लग जाएगी दुकान

कैसे इनसे छुटकारा मिलेगा  

कभी सोचना समय निकाल |

शायद कोई हल खोज पाओ

मुझे भी निदान बता देना

समाज रूपी नाग के दंश से

कैसे आजादी पाऊँ मुझे भी  जता देना |

जब होगा तालमेल समाज से   

तभी शान्ति मन को होगी

जीवन की समस्याएँ तो

अनवरत  चलती रहेंगी |

वे आई हैं  जन्म  के साथ

और जाएंगी मृत्यु के साथ

अब और परेशानी नहीं चाहिए

जितनी है वही है पर्याप्त |

आशा

06 दिसंबर, 2020

किसी को पूरा जहां नहीं मिलता

 


                                                      किसी को सारा आसमाँ नहीं  मिलता

कितने भी यत्न कर लो  सारा  जहां नहीं मिलता

है यह नसीब का खेल या विधान विधाता का

 जितना चाहो जब  चाहो  नहीं मिलता |

बहुत प्रयत्न करने पड़ते हैं

 उस ऊंचाई तक पहुँचने के लिए

अधिकतर असफलता ही हाथ आती है

 तब ही सफलता झांकती है कायनात के किसी झरोखे से |

यह तो नियति का है फैसला जिसे चाहे नवाजे

  खुशकिस्मत  है वह जो इस ऊंचाई तक पहुंचे

संजोग से या प्रयत्नों से यह तो बता नहीं पात़ा

 प्रसाद पा  प्रसन्न होता उन्नत होता भाल गर्व से |

आशा

05 दिसंबर, 2020

हाईकू (मौसम बदला )



बरखा गई
मौसम बदला है
ठण्ड आगई 
 
सूर्य किरण
गवाह है उसकी
रौशनी मंद 
 
नम ग्रास है
पत्ते गीले ओस से
सुहाना समा 
 
ठंडी रात है 
गर्म कपड़ों से भी
सर्दी न गई 
 
 
 अलाव जला
कपडे फटे टूटे
तन ढकते
 
आशा



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    04 दिसंबर, 2020

    क्षुधा तुम्हारी

     

     


                                           क्षुधा  तुम्हारी है असीम

    कभी समाप्त नहीं होती

    है ऐसा क्या उसमें विशेष

    जिसे देख कर तृप्त नहीं होते |

    इस प्यास का कोई तो उपचार होगा

    कोई  डाक्टर तो होगा 

      जो उसकी जड़ तक पहुंचे  उसे समझ पाए

    सही उपचार करके उसे  विदा कर सके |

     कभी न देखे ऐसे मरीज और उपचारक

    सामने बीमार खड़ा हो और उपचार में सहयोग न दे

    क्या सोचें  ऐसे बीमारों पर जिसके निदान की

     कितनी भी  हो आवश्यकता पर हल न हो

    दिल का सुकून भी साथ ले जाए |

    आशा

     

    03 दिसंबर, 2020

    कृषक


    हो तुम महनतकश कृषक

     तुम अथक परिश्रम करते

    कितनों की भूख मिटाने के लिए

    दिन को दिन नहीं समझते |

    रात को थके हारे जब घर को लौटते

    जो मिलता उसी से अपना पेट भर

    निश्चिन्त हो रात की नींद पूरी करते

    दूसरे दिन की  फिर भी चिंता रहती |

    प्रातः काल उठते ही

    अपने खेत की ओर रुख करते

    दिन रात की  मेहनत रंग लाती 

    जब खेती खेतों में लहलहाती |

    तुम्हारा यही परीश्रम यही  समर्पण

     तुम्हें बनाता विशिष्ट सबसे अलग

    हो तुम  सबसे भिन्न हमारे अन्न दाता|

    आशा