समाज देख रहा मूँद नयन सब
जो हो रहा जैसा भी हो रहा
बिना सुने और अनुभव करे
निर्णय तक भी पहुँच रहा |
उसकी लाठी है बेआवाज
जब चलेगी हिला कर रख देगी
दहला देगी दिल को
और सारे परिवेश को
केवल बातों के सिवाय
होगा कोई न निकाल |
और अधिक उलझनों की
लग जाएगी दुकान
कैसे इनसे छुटकारा मिलेगा
कभी सोचना समय निकाल |
शायद कोई हल खोज पाओ
मुझे भी निदान बता देना
समाज रूपी नाग के दंश से
कैसे आजादी पाऊँ मुझे भी जता देना |
जब होगा तालमेल समाज से
तभी शान्ति मन को होगी
जीवन की समस्याएँ तो
अनवरत चलती रहेंगी |
वे आई हैं जन्म के साथ
और जाएंगी मृत्यु के साथ
अब और परेशानी नहीं चाहिए
जितनी है वही है पर्याप्त |
आशा
सत्य है ! जितनी परेशानियां भोग लीं पत्याप्त हैं ! लेकिन इन की संख्या या तीव्रता पर अपना वश कहाँ बस स्वीकार भाव से इनको झेलना ही हमारी नियति है ! सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (8-12-20) को "संयुक्त परिवार" (चर्चा अंक- 3909) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
सुप्रभात
हटाएंमेरी रचना शामिल करने की सूचना के लिए आभार आपका कामिनी जी |
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना...🌹🙏🌹
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना आदरणीया
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद अनुराधा जी टिप्पणी के लिए |
बहुत सुंदर विचारणीय सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर।
Thanks for the comment
हटाएंThanks for the comment.
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