13 अगस्त, 2010

मन की स्थिति

इस मस्तिष्क की भी ,
एक निराली कहानी है ,
कभी स्थिर रह नहीं पाता,
विचारों का भार लिए है ,
शांत कभी न हो पाता ,
कई विचारों का सागर है ,
कुछ प्रसन्न कर देते हैं ,
पर उदास कई कर जाते हैं ,
जब उदासी छाती है ,
संसार छलावा लगता है ,
इस में कुछ भी नहीं रखा है ,
यह विचार बार बार आता है ,
विरक्त भाव घर कर जाता है ,
पर अगले ही क्षण,
कुछ ऐसा होता है ,
दबे पांव प्रसन्नता आती है ,
आनन पर छा जाती है ,
दिन में दिवास्वप्न ,
और रात्रि में स्वप्न,
आते जाते रहते हैं ,
अपने मन की स्थिति देखती हूं ,
सोचती हूं किससे क्या कहूँ ,
जब अधिक व्यस्त रहती हूं ,
कुछ कमी सपनों मैं होती है ,
कार्य करते करते ,
जाने कहाँ खो जाती हूं
पर कुछ समय बाद ,
फिर से व्यस्त हो जाती हूं ,
ऐसा क्यूँ होता है ,
मैं स्वयं समझ नहीं पाती ,
ना ही कोई असंतोष जीवन में ,
और ना अवसाद कोई ,
फिर भी सोचती हूं ,
खुद को कैसे इतना व्यस्त रखूं,
मन की बातें किससे कहूं,
मन के जो अधिक निकट हो ,
यदि यह सब उससे कहूं ,
शायद कुछ बोझ तो हल्का हो ,
मस्तिष्क और ना भटके ,
मनोविज्ञान पढ़ा है फिर भी ,
विचारों में होते बदलाव का,
कारण जान नहीं जान पाई ,
कोई हल् निकाल नहीं पाई ,
शायद संसार मैं यही होता है ,
जो मस्तिष्क पर छाया रहता है |
आशा



,

7 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन सच तभी तो इसे अनमोल कहते हैं

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  2. मन की और मस्तिष्क की, गाथा बहुत विचित्र।
    मस्तक करता है मनन, मन का भिन्न चरित्र।।

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  3. मन तो बिना डोर की पतंग की तरह होता है ! विचारों के अनंत आकाश में जाने कहाँ-कहाँ भटकता है, जाने किस पर आसक्त होता है और किससे विरक्त कोई नहीं जानता ! उसकी उड़ान के अनुभव ही हमारे चहरे पर प्रतिबिंबित होते हैं ! सुन्दर रचना ! बधाई !

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  4. मन में चलने वाले अंतर्द्वद्व को बहुत खूबसूरती से लिखा है...बहुत बढ़िया

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  5. मनोविज्ञान पढ़ा है फिर भी ,
    विचारों में होते बदलाव का,
    कारण जान नहीं जान पाई ,

    यहीं तो मनोविज्ञान चूक जाता है

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  6. दिल तो पागल है जी....बन्दर सा चंचल है जी...जरा बाँध लीजिए...
    सुंदर प्रस्तुति.

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