- उस दिन तो बरसात न थीमौसम सुखमय तब भी न लगासब कुछ था पहले ही साफिर मधुर तराना क्यूं न लगा |शायद पहले बंधे हुए थेकच्चे धागों की डोर सेलगती है वह टूटी सीसूखी है हरियाली मन की |सुबह वही और शाम वहीहै रहने का स्थान वहीपर लगता वीराना सारा मंजररहता मन बुझा बुझा सा |यादों की दुनिया से बाहरआने की कशमकश मेंहोती है बहुत घुटनपर है अनियंत्रित मन |मन नहीं चाहताकिसी और बंधन में बंधनाअब फंसना नहीं चाहतादुनियादारी के चक्रव्यूह में|
man ke bhaavo ko achche shabd sootra me piroya hai.bahut achchi prastuti.
जवाब देंहटाएंहर शब्द बहुत कुछ कहता हुआ, बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिये बधाई के साथ शुभकामनायें ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर मनोभाओं से सजी कविता| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंक्या बात है...बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंदुनिया का ये चक्रव्यूह मरने साथ ही छूटता है ...
जवाब देंहटाएंbehtreen prstuti....
जवाब देंहटाएंबहुत बारीक-सी कहन...मन को छूने वाली...
जवाब देंहटाएंआशा जी,
जवाब देंहटाएंनमस्कार,
आपके ब्लॉग को "सिटी जलालाबाद डाट ब्लॉगसपाट डाट काम" के "हिंदी ब्लॉग लिस्ट पेज" पर लिंक किया जा रहा है|
कोमल भावों से परिपूर्ण बेहतरीन रचना ! दिल को छूने में सक्षम बहुत सुन्दर प्रस्तुति ! बधाई !
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
जवाब देंहटाएंयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
sunder prastuti..
जवाब देंहटाएंek star par aakar man thahrna chahta hai
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावुक करने वाली रचना.
जवाब देंहटाएंगजब की अभिव्यक्ति!!!
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