18 दिसंबर, 2011

पाषाण या बुझा अंगार


है कैसा पाषाण सा
भावना शून्य ह्रदय लिए
ना कोइ उपमा ,अलंकार
या आसक्ति सौंदर्य के लिए |
जब भी सुनाई देती
टिकटिक घड़ी की
होता नहीं अवधान
ना ही प्रतिक्रया कोई |
है लोह ह्रदय या शोला
या बुझा हुआ अंगार
सब किरच किरच हो जाता
या भस्म हो जाता यहाँ |
है पत्थर दिल
खोया रहता अपने आप में
सिमटा रहता
ओढ़े हुए आवरण में |
ना उमंग ना कोई तरंग
लगें सभी ध्वनियाँ एकसी
हृदय में गुम हो जातीं
खो जाती जाने कहाँ |
कभी कुछ तो प्रभाव होता
पत्थर तक पिधलता है
दरक जाता है
पर है न जाने कैसा
यह संग दिल इंसान |
आशा




12 टिप्‍पणियां:

  1. पाषाण ही जीवन को एक ठोस धरातल देते हैं ! इनसे व्यक्ति को आधार, सुरक्षा और हिम्मत मिलती है क्योंकि ये हमारी शक्ति को बढाते हैं ! इनसे कतराना व्यर्थ है ! वैसे सुन्दर रचना है जीजी ! मज़ा आया पढ़ कर !

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  2. भावहीनता को परिभाषित करती सुन्दर कविता!

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  3. bhavshunya hona bibashta bhee ho gayi hai..bhavon kee pravnta bhavuk banati hai..bhavuk hone ke parinaam aaj kal kya hayin ..ham bakhubi parichit hain..lekin bhav biheen hona samaj ke liye shubh sanket nahi hai..sadar badhayee ke sath

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  4. इंसानी फितरत तो पत्थर पर भी भारी हैं .

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  5. पत्थर तक पिघलता है
    पर है न जाने कैसा
    यह संग दिल इंसान...
    सही कह रही है आपकी रचना भावनाशून्य हो गया है आज का इन्सान... आभार...

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