19 मई, 2012

सीमेंट के इस जंगल में


सीमेंट के इस जंगल में
चारों ओर दंगल ही दंगल
वाहनों की आवाजाही
भीड़ से पटी सड़कें
घर हैं या मधुमक्खी के छत्ते
अनगिनत लोग रहते
एक ही छत के नीचे
रहते व्यस्त सदा
रोजी रोटी के चक्कर में
आँखें तरस गयीं
हरियाली की एक झलक को
कहने को तो पेड़ लगे हैं
पर हैं सब प्लास्टिक के
हरे रंग से पुते हुए
दिखते सब असली से
नगर सौन्दरीकरण के नाम पर
जाने कितना व्यय हुआ
पर वह बात कहाँ
जो है प्रकृति के आंचल में
सांस लेने के लिए भी
सहारा कृत्रिम वायु का 
 ठंडक के लिए सहारा
 कूलर और ए.सी. का
है आज की जीवन शैली
इन बड़े शहरों की
सीमेंट सरियों से बने
इस जंगल के घरोंदों की
और वहा  रहने वालों की |
आशा


16 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर और सटीक चित्रण....आभार

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  2. आजकल के शहरी जीवन का बड़ी सूक्ष्मता के साथ अध्ययन किया है आपने ! सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति के लिए शुभकामनाएं !

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  3. पर वह बात कहाँ
    जो है प्रकृति के आंचल में
    सांस लेने के लिए भी
    सहारा कृत्रिम वायु का.....sahi bat...

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    1. आप लोगों की टिप्पणी से लेखन को बल मिलता है |टिप्पणी हेतु आभार

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  4. शहरी जीवन कृत्रिम बनकर रह गया है , सब कुछ नकली बनावटी, सही कहा है आपने... सटीक प्रस्तुति के लिए आभार

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  5. कभी कभी बहुत खीज होती है इस सीमेंट के जंगलात से.... धरती अलग प्यासी मरी जा रही है...

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  6. शहरी जीवन की कृत्रिमता बहुत खलती है |शायद उसी की प्रतिक्रिया हैं |
    टिप्पणी हेतु आभार |
    आशा

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  7. शास्त्री जी चर्चा मंच में रचना शामिल करने के लिए आभार |
    आशा

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  8. kankreeto ke bante jangal
    rocke bhee jaate hain mangal
    nayi nayi rituyein jawan hain
    lekin wo madhumas nahi hai''''''''''wakai ham apni utpatti ke adhar se satat door ho rahe hai aur shayad yahi hamare liye sabse bada chinta ka sabab hai ..sacchai chup nahi sakti banawat ke usulon se..khusboo aa nahi sakti hai kagaj ke phoolon se...bahut hee shandaar rachna..sadar badhayee aaur sadar amantrn ke sath

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  9. ये विकास की है गाथा
    या रुदन है प्रकृति का!

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  10. बहुत सुन्दर प्रस्‍तुति .आभार

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  11. आपकी इस रचना को कविता मंच पर साँझा किया गया है

    संजय भास्कर
    http://kavita-manch.blogspot.in

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