17 मई, 2012

यूँ ही जिए जाता हूँ

दरकते रिश्तों का 
कटु अनुभव ऐसा 
हो कर मजबूर 
उन्हें साथ लिए फिरता हूँ 
है केवल एक दिखावा 
दिन के उजाले में 
अमावस्या की रात का 
आभास लिए फिरता हूँ 
इस टूटन की चुभन 
और गंध पराएपन की 
है गंभीर इतनी 
रिसते घावों को 
साथ सहेजे रहता हूँ 
नासूर बनते जा रहे 
इन रिश्तों की 
खोखली इवारत की 
सूची लिए फिरता हूँ
स्पष्टीकरण हर बात का 
देना आदत नहीं मेरी 
गिले शिकवों के लिए भी 
बहुत देर हो गयी 
बड़ी बेदिली से 
भारी मन से 
उन सतही रिश्तों को 
सहन करता हूँ 
हूँ बेजार बहुत
पर यूँ ही जिए जाता हूँ |
आशा

14 टिप्‍पणियां:

  1. कोमल भावों से लिखी सुन्दर रचना

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  2. बहुत सुंदर रचना लिखी आपने आशाजी,,,,,

    भारी मन से
    उन सतही रिश्तों को
    सहन करता हूँ
    हूँ बेजार बहुत
    पर यूँ ही जिए जाता हूँ |

    MY RECENT POST,,,,काव्यान्जलि ...: बेटी,,,,,
    MY RECENT POST,,,,फुहार....: बदनसीबी,.....

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  3. उन सतही रिश्तों को
    सहन करता हूँ
    हूँ बेजार बहुत
    पर यूँ ही जिए जाता.......bahut gahri baten ....

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  4. जब रिश्ते दरक जाते हैं तो ऐसा ही एहसास रह जाता है ... खूबसूरती से लिखे एहसास ॥

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  5. दिन के उजाले में
    अमावस्या की रात का
    आभास लिए फिरता हूँ ...

    गहन रचना ...ऊपरी रिश्तों कि दास्ताँ कहती है ...!!

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  6. स्पष्टीकरण हर बात का
    देना आदत नहीं मेरी
    गिले शिकवों के लिए भी
    बहुत देर हो गयी
    - हर जगह सामंजस्य बैठाना संभव भी तो नहीं होता -हरेक की अपनी मजबूरी !

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  7. मन के अवसाद को बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति दी है ! आम इंसान की शायद यही मजबूरी है ! यह बोझ ऐसा है जिसे कहीं उतारा भी नहीं जा सकता ! बहुत मर्मस्पर्शी रचना ! बधाई !

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  8. आपसी मनमुटाव से रोज़ ही पता नहीं कितने ही रिश्ते दरकते हैं .....बहुत बढिया शब्द रचना ..

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  9. bahut hi badhia poem
    har shand laajawab hain

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  10. मार्मिक भावाभिवय्क्ति.....

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  11. पर यूँ ही जिए जाता हूँ |
    आशा

    सामयिक यथार्थ से रु -बा -रु पोस्ट .

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