झूलों पर पेंग बढ़ाती आती
कोमल डाली सी झुक जाती
मन मोहक खुशबू छा जाती
जब आती बहार पहाड़ों पर |
प्रकृति की इस बगिया में
वह अपनी जगह बनाती
बनती कभी चंचला हिरनी
या गीत विरह के गाती|
फिर कोयल की कूक उभरती
बोझिल लम्हों को हर लेती
कल कल बहती निर्झरनी सी
लो आई बहार वन देवी सी |
आशा
Bahar ke sugandhit jhonke mujhe yahaan bhee sarabor kar rahe hain apaki kavita ke madhyam se. Bahut sundar kavita hai. Badhai.
जवाब देंहटाएंSunder Kavita aasha ji bahut bahut badhai..
जवाब देंहटाएंअनुपमा जी की संगीतमयी हलचल का ' सा' बनी आपकी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति बहुत अच्छी लगी आशा जी.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
नई पोस्ट पर आपका स्वागत है.
बहुत ही मनोरम शब्दचित्र!
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar rachana hai...
जवाब देंहटाएंkuch hat kar...khubsurat chitr ke sath sunder rachna .......aabhar
जवाब देंहटाएंकल कल बहती निर्झरनी सी ,
जवाब देंहटाएंलो आई बहार वन देवी सी |
बहत खूबसूरत लिखा है आपने आभार
बहार ले आई यह रचना!
जवाब देंहटाएंarchanachaoji.blogspot.com
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