04 दिसंबर, 2009

बहार


झूलों पर पेंग बढ़ाती आती
कोमल डाली सी झुक जाती
मन मोहक खुशबू छा जाती
जब आती बहार पहाड़ों पर |
प्रकृति की इस बगिया में
वह अपनी जगह बनाती
बनती कभी चंचला हिरनी
या गीत विरह के गाती|
फिर कोयल की कूक उभरती
बोझिल लम्हों को हर लेती
कल कल बहती निर्झरनी सी
लो आई बहार वन देवी सी |

आशा

10 टिप्‍पणियां:

  1. Bahar ke sugandhit jhonke mujhe yahaan bhee sarabor kar rahe hain apaki kavita ke madhyam se. Bahut sundar kavita hai. Badhai.

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  2. अनुपमा जी की संगीतमयी हलचल का ' सा' बनी आपकी
    प्रस्तुति बहुत अच्छी लगी आशा जी.

    मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
    नई पोस्ट पर आपका स्वागत है.

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  3. बहुत ही मनोरम शब्दचित्र!

    सादर

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  4. कल कल बहती निर्झरनी सी ,
    लो आई बहार वन देवी सी |

    बहत खूबसूरत लिखा है आपने आभार

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