मरूभूमि सा मेरा जीवन ,
मृगतृष्णा बन कर तुम आये ,
जब-जब तुमको पाना चाहा ,
बहुत दूर नजर आये ,
मैंने अपना सब कुछ छोड़ा,
जब से तुमसे नाता जोड़ा,
जो चाहा था बन न सके
तुम्हारे ही हो कर रह गये ,
दुखों को भी झेला हमने ,
सुख से भी ना दूर रहे ,
जैसा तुमने चाहा था ,
वैसे ही बन कर रह गये ,
अपना अस्तित्व मिटा बैठे ,
खुद को ही हम भूल गये ,
फिर शिकायत क्यूँ करते हो ,
मैंने जो चाहा बन न सका ,
आपसी दूरी घटा न सका ,
क्यूँ गिले शिकवे करते रहते हो ,
साथ चलने का वादा क्यूँ नहीं करते ,
साथ रहेंगे क्यूँ नहीं कहते ?
आशा
फिर क्यों शिकायत !!!
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति
अपना अस्तित्व मिटा बैठे ,
जवाब देंहटाएंखुद को ही हम भूल गए ,
फिर शिकायत क्यूँ करते हो ,
शिकायत की आदत है जिसे वे तो करेंगे ही
सुन्दर रचना
मैंने जो चाहा बन न सका ,
जवाब देंहटाएंआपसी दूरी घटा न सका ,
क्यूँ गिले शिकवे करते रहते हो ,
साथ चलने का वादा क्यूँ नहीं करते , sundar bhaav..prem me umadti bhaavnaayein aur virah me jalti panktiyan
अपनी असफलताओं का ठीकरा दूसरों के सर पर फोडने की इंसानी फितरत बहुत पुरानी है ! जो नहीं कर सके वह औरों की वजह से नहीं कर सके यह सिद्ध करना ही लोगों का स्वभाव होता है ! आपने इन भावनाओं को बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति दी है ! बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंपहली बार आपके ब्लॉग पर आया!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा!
आपकी रचना और लेखन बहुत ही परिष्कृत लगे!
आपने इन भावनाओं को बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति दी है ! बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
जवाब देंहटाएंढेर सारी शुभकामनायें.
आप सब को मेरी तरफ से बहुत बहुत धन्यवाद | मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है \मुझे बहुत अच्छा लगा कि आपने मेरा लेखन
जवाब देंहटाएंपसंद किया |इसी प्रकार मेरा हौसला बढाते रहें |आभार
आशा