03 जून, 2010

फिर शिकायत क्यूँ

मरूभूमि सा मेरा जीवन ,
मृगतृष्णा बन कर तुम आये ,
जब-जब तुमको पाना चाहा ,
बहुत दूर नजर आये ,
मैंने अपना सब कुछ छोड़ा,
जब से तुमसे नाता जोड़ा,
जो चाहा था बन न सके
तुम्हारे ही हो कर रह गये ,
दुखों को भी झेला हमने ,
सुख से भी ना दूर रहे ,
जैसा तुमने चाहा था ,
वैसे ही बन कर रह गये ,
अपना अस्तित्व मिटा बैठे ,
खुद को ही हम भूल गये ,
फिर शिकायत क्यूँ करते हो ,
मैंने जो चाहा बन न सका ,
आपसी दूरी घटा न सका ,
क्यूँ गिले शिकवे करते रहते हो ,
साथ चलने का वादा क्यूँ नहीं करते ,
साथ रहेंगे क्यूँ नहीं कहते ?


आशा

8 टिप्‍पणियां:

  1. फिर क्यों शिकायत !!!
    सुन्दर अभिव्यक्ति

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  2. अपना अस्तित्व मिटा बैठे ,
    खुद को ही हम भूल गए ,
    फिर शिकायत क्यूँ करते हो ,
    शिकायत की आदत है जिसे वे तो करेंगे ही
    सुन्दर रचना

    जवाब देंहटाएं
  3. मैंने जो चाहा बन न सका ,
    आपसी दूरी घटा न सका ,
    क्यूँ गिले शिकवे करते रहते हो ,
    साथ चलने का वादा क्यूँ नहीं करते , sundar bhaav..prem me umadti bhaavnaayein aur virah me jalti panktiyan

    जवाब देंहटाएं
  4. अपनी असफलताओं का ठीकरा दूसरों के सर पर फोडने की इंसानी फितरत बहुत पुरानी है ! जो नहीं कर सके वह औरों की वजह से नहीं कर सके यह सिद्ध करना ही लोगों का स्वभाव होता है ! आपने इन भावनाओं को बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति दी है ! बहुत खूब !

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  5. पहली बार आपके ब्लॉग पर आया!
    बहुत अच्छा लगा!
    आपकी रचना और लेखन बहुत ही परिष्कृत लगे!

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  6. आपने इन भावनाओं को बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति दी है ! बहुत खूब !

    जवाब देंहटाएं
  7. बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
    ढेर सारी शुभकामनायें.

    जवाब देंहटाएं
  8. आप सब को मेरी तरफ से बहुत बहुत धन्यवाद | मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है \मुझे बहुत अच्छा लगा कि आपने मेरा लेखन
    पसंद किया |इसी प्रकार मेरा हौसला बढाते रहें |आभार
    आशा

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