25 जून, 2010

बंजारा

मैं बंजारा घूम रहा ,
कभी यहाँ तो कभी वहाँ ,
कहीं रात गुजरती है ,
सुबह कहीं और होती है ,
जिंदगी यूँ ही बसर होती है |
चाहे जहाँ घर बन जाता है ,
भोजन पानी भी मिल जाता है ,
जब भी पैर थक जाते हैं ,
पड़ाव वहीं डल जाता है |
दुनिया की चमक दमक से ,
दूरी अब तक रख पाया ,
सीमित आवश्यकताओं से ही,
खुद को जीत पाया |
मैं तो एक बंजारा हूँ ,
जगह-जगह घूमता हूँ ,
एक जगह बंध कर रहना ,
आजादी का हनन लगता,
नहीं चाहता महल अटारी ,
मेरा घर दुनिया सारी ,
मेहनतकश इंसान हूँ,
मेहनत रंग लाती है मेरी |
जब थकान हो जाती है ,
फटा चादरा ओढ़ कर ,
चाहे जहाँ सो जाता हूँ ,
सपनों में खो जाता हूँ |
जैसे ही सुबह होती है,
फिर खानाबदोश हो जाता हूँ |


आशा

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत भावपूर्ण रचना..बधाई.

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  2. बहुत बढ़िया ! भौतिक रूप से नहीं तो कम से कम सोच के आधार पर ही लोग बंजारों की तरह सीमित साधनों के साथ खुश रहना सीख लें तो उनकी आधी चिताएं समाप्त हो जाएँ ! सुन्दर रचना ! आभार !

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