09 अगस्त, 2010

क्यूँ इस ताबूत में

क्यूँ इस ताबूत में ,
खुद को सुलाना चाहते हो ,
उसमे आख़िरी कील ,
ठुकवाना चाहते हो ,
ना ही आत्ममंथन किया ,
आत्म विशलेषण भी न किया ,
यह भी कभी न सोचा ,
कहाँ से कहाँ निकल गए हो ,
सही राह से भटक गए हो ,
मधुशाला की ओर मुड़े क्यूँ ,
आकंठ मदिरा में डूबे रहते हो ,
क्या सन्देश सब को देते हो ,
ऐसा क्या हुआ है ज़रा सोचो ,
अंदर ही अंदर घुटते रहते हो ,
माना मैं तुम्हारी कुछ नहीं लगती ,
पर मित्र भाव तो रखती हूं ,
मैने कई घरों को,
टूटते उजड़ते देखा है ,
क्यूँ बर्बादी को चुन रहे हो ,
अन्धकार में घिर रहे हो ,
इसी तरह विचलित रहे ,
अपने को सम्हाल नहीं पाए ,
फिर बापिस आना मुश्किल होगा ,
और किसी की मत सोचो ,
पर खुद का तो ख्याल करो ,
आत्म नियंत्रण नहीं किया तो ,
पंक में धसते जाओगे ,
जागो और सोचो ,
जीवन का सत्कार करो ,
आगे अभी बहुत चलना है ,
सही राह की तलाश करो |
आशा

4 टिप्‍पणियां:

  1. इस शिक्षाप्रद और प्रेरणा देने वाली रचना के लिए बधाई!

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  2. अच्छे मार्ग पर चलने के लिये सार्थक सन्देश देती एक प्रभावपूर्ण प्रस्तुति ! बहुत सुन्दर ! बधाई !

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  3. सही दिशा देती रचना .....ताबूद की जगह ताबूत लिख लें ...

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  4. संगीता जी सही शब्द के लिए बहुत बहुत धन्यवाद |
    आशा

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