इस अजनवी शहर में ,
जब रखे थे कदम ,
मुझे कुछ नया नहीं लगा था ,
जानते हो क्यूँ ,
तब तुम मेरे साथ थे ,
था अटूट बंधन विश्वास का ,
सब कुछ पीछे छोड़ आई थी ,
साथ जीने मरने की,
कसमें भी खाई थीं ,
पर थी मैं गलत ,
तुम्हें समझ नहीं पाई ,
केवल सतही व्यवहार को ही,
सब कुछ जान बैठी ,
तुम इतना बदल जाओगे ,
आते ही भटक जाओगे ,
मुझ से दूर होते जाओगे
कभी सोचा न था ,
तुम पर आस्था कर बैठी ,
अपना सर्वस्व लुटा बैठी ,
हूं बर्बादी के कगार पर,
ना धन ना कोई वैभव ,
बहुत हैरान हूं ,
परेशान हूं ,
शर्मिंदगी अपने लिए ,
मन में समेटे बैठी हूं ,
अब तुम गैर लगते हो ,
पास होते हुए भी,
अपने नहीं लगते ,
शहर अजनवी लगता है ,
हूं मैं एक रिक्त पड़ा मकान ,
जिस पर अनाधिकार ,
कब्जा जमाए बैठे हो |
आशा
bahut sundar abhivyakti
जवाब देंहटाएंhttp://sanjaykuamr.blogspot.com/
इस अजनवी शहर में ,
जवाब देंहटाएंजब रखे थे कदम ,
मुझे कुछ नया नहीं लगा था ,
जानते हो क्यूँ ,
तब तुम मेरे साथ थे ,
था अटूट बंधन विश्वास का ,
सब कुछ पीछे छोड़ आई थी ,
साथ जीने मरने की,
कसमें भी खाई थीं ,
पर थी मैं गलत ,
तुम्हें समझ नहीं पाई ,
सुन्दर शब्द रचना ।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति के साथ ही एक सशक्त सन्देश भी है इस रचना में।
जवाब देंहटाएंहूं मैं एक रिक्त पड़ा मकान ,
जवाब देंहटाएंजिस पर अनाधिकार ,
कब्जा जमाए बैठे हो |
मार्मिक चित्रण ..
अत्यन्त जानदार और उतम कविता .........
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंहूं मैं एक रिक्त पड़ा मकान ,
जवाब देंहटाएंजिस पर अनाधिकार ,
कब्जा जमाए बैठे हो |
बहुत हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ ! प्रभावशाली और मार्मिक अभिव्यक्ति ! अति सुन्दर !
पास हो कर अजनबी लगना
जवाब देंहटाएंइंसान हो या शहर ...
कविता इस दर्द को बयान कर रही है ...!