11 दिसंबर, 2010

सच क्यूँ नहीं कहते


बातों के लच्छे
गालों के डिम्पल
और शरारत चेहरे पर
किसे खोजती आँखें तेरी
लिए मुस्कान अधरों पर
कहीं दूर बरगद के नीचे
मृगनयनी बैठी आँखें मींचे
करती इंतज़ार हर पल तेरा
चौंक जाती हर आहट पर
आँखें फिर भी नहीं खोलती
यही भरम पाले रहती
नयनों में कैद किया तुझको
दिल में बंद किया तुझको
खुलते ही पट नयनों के
तू कहीं न खो जाये
स्वप्न स्वप्न ही न रह जाए
है अपेक्षा क्या उससे
स्पष्ट क्यूँ नहीं करते
 क्या चाहते हो
सच क्यूँ नहीं कहते 
 भ्रम जब टूट जायेगा
सत्यता जान पाएगी |
आशा


,

10 टिप्‍पणियां:

  1. सत्य की शक्ति को दर्शाती सुन्दर रचना!

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  2. आदरणीया आशा अम्मा
    प्रणाम !

    बहुत सरस और जीवंत रचना है

    सच क्यूं नहीं कहते ,
    उसका भ्रम जब टूट जाएगा ,
    अन्धकार में नहीं रहेगी ,
    विस्मृत तुम्हे कर पाएगी ,
    खुद भी भ्रम जाल से ,
    बाहर निकल पाएगी …


    लेकिन लोग हमेशा औरों को भ्रम में ही रखते हैं …
    सुंदर कविता के लिए बधाई !!

    शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  3. मरीचिकाओं के जाल में दूसरों को सदैव उलझाये रखने वालों के लिये मार्ग दर्शन करती बढ़िया रचना ! अति सुन्दर !

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. मार्गदर्शन करती.. प्रेरित करती कविता अच्छी लगी...

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  6. मार्गदर्शन करती कविता अच्छी लगी...

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