10 जनवरी, 2011

बैसाखी नहीं चाहती

जब भी हाथ बढ़ा स्नेह का ,
झोली भर खुशियाँ बाँटीं ,
उस पर जब भी हाथ उठाया ,
वह जाने कितनी मौत मरी ,
है यह कैसा प्यार तकरार ,
और छिपी हुई उसमें ,
जाने कितनी भावनायें ,
है समझ भी उनकी ,
पर जब चोट लगती है ,
वह बहुत आहत हो जाती है ,
और भूल जाती है ,
उस प्रेम का मतलब ,
जो कुछ समय पूर्व पाया था ,
नफरत से भर जाती है ,
बदले का भाव प्रबल होता है ,
और उग्रता आती है ,
यही उग्रता बलवती हो ,
बदल देती राह उसकी ,
और चल पड़ी अनजान राह पर ,
मन में गहरा विश्वास लिये ,
नही जानती कहाँ जायेगी ,
किस-किस का अहसान लेगी ,
बस इतना जानती है ,
इस नर्क से तो आज़ाद होगी ,
प्यार ममता और समर्पण ,
बाँट-बाँट हो गयी खोखली ,
सहन शक्ति की पराकाष्ठा ,
बहुत दूर की बात हो गयी ,
जब अंदर ज्वाला धधकती है ,
पृथ्वी तक फट जाती है ,
थी तब वह अबला नारी ,
पर जुल्म कब तक सह पाती ,
है अब वह सबल सफल ,
कमजोर असहाय नारी नहीं ,
अपना अधिकार पाना जानती है ,
अपने पैरों पर खड़ी है ,
किसी की बैसाखी नहीं चाहती |

आशा

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत गहरा दर्शन है इन पक्तियो के पिछे।
    अबला से सबला तक
    सादर

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  2. है अब वह सबल सफल ,
    कमजोर असहाय नारी नहीं ,
    अपना अधिकार पाना जानती है ,
    अपने पैरों पर खड़ी है ,
    किसी कि बैसाखी नहीं चाहती ...
    Saf aur sachchi tasveer is naye bharat ki naari ki.. abla nahi ab sabla hai .......

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  3. वक़्त बदल गया है और नारी की छवि भी ... बहुत सुंदर रचना

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  4. vyatha aur sabalta ek sath hi nari ke jeevan ke rang hain aur aapne bahut hi khoobsoorti se inhe apni kavita ke madhyam se prastut kiya hai.
    mere blog kaushal[http://shalinikaushik2.blogspot.com]par aapka hardik swagat hai...

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  5. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार !
    एक अच्छी और सामयिक प्रस्तुति ! बधाई

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  7. आधुनिक नारी की बहुत ही मनभावन और मोहक तस्वीर खींची है आपने अपनी रचना में ! उसके संघर्ष और समस्त कठिनाइयों को पराजित कर अबला से सबला हो जाने की गाथा बहुत प्रेरणादायी है ! सशक्त रचना के लिये आभार एवं शुभकामनाएं !

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