16 जनवरी, 2011

क्यूँ नहीं आए अभीतक

क्यूँ नहीं आए अभी तक ,
कब तक बाट निहारूँ मैं ,
ले रहे हो कठिन परीक्षा ,
है विश्वास में कहाँ कमी ,
कभी विचार आता है
अधिक व्यस्तता होगी ,
जल्दी ही बदल जाता है
कुछ बुरा तो नहीं हुआ है ,
चंचल विचलित यहाँ वहाँ
कहाँ नहीं ढूँढा तुमको ,
फिर भी खोज नहीं पाई
चिंताएं मन में छाईं ,
जब भी फोन की घंटी बजती ,
तुम्हारे सन्देश की आशा जगती ,
यदि वह किसी और का होता ,
चिंताओं में वृद्धि होती ,
यह चंचलता यह बेचैनी
कुछ भी करने नहीं देती ,
यदि बता कर जाते
यह परेशानी तो नहीं होती |
बहुत इन्तजार कर लिया
जल्दी से लौट आओ
मेरा सब का कुछ तो ख्याल करो
अधिक देर से आओगे यदि
फटे कागजों के अलावा
कुछ भी नहीं पाओगे
चार दीवारों से घिरा
खाली मकान रह जाएगा
बाद में दुखी होगे
अकेले भी न रह पाओगे |

आशा

7 टिप्‍पणियां:

  1. कविता में संवेदना का विस्तार व्‍यापक रूप से देखा जा सकता है ।

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  2. एक तड़प दिखती है रचना में जुदाई की , किसी तरह पा लेने के ... बहुत भावमयी रचना .. शुभकामनाएँ

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  3. इंतज़ार की टीस से भरी -
    सुंदर रचना -

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  4. बहुत ही अच्‍छी कविता लिखी है ...... आपने काबिलेतारीफ बेहतरीन

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  5. जब भी फोन की घंटी बजती ,
    तुम्हारे सन्देश की आशा जगती ,
    यदि वह किसी और का होता ,
    चिंताओं में बृद्धि होती ,
    यह चंचलता यह बेचैनी
    कुछ भी करने नहीं देती ,
    यदि बता कर जाते
    यह परेशानी तो नहीं होती ...
    बहुत खूब ... ये सच है की कोई बता कर जाए तो परेशनि नही होती ... पर ये आदत कितनों में होती है ...

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  6. बहुत सुन्दर रचना ! आशा है आपका इंतज़ार समाप्त हो गया होगा ! फटे कागजों की धमकी देकर डराइये मत ! हा हा हा ! बहुत अच्छा लगा रूठने का यह अंदाज़ !

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