23 मार्च, 2011

है उम्र ही ऐसी


बढ़ता अन्तर द्वन्द
टूटते बिखरते सपने
होते नहीं
किसी के अपने |
अपने भी लगते बेगाने
चाहे कोई
माने ना माने |
कशिश ओर तपिश उसकी
कर देती बेचैन
उसकी ही तलाश में
हुआ प्यासे चातक सा हाल |
मनोदशा ऐसी हुई
पंख कटे पक्षी जैसी
वह छटपटाहट और बदहाली
रात और हो जाती काली |
उस की स्याही में
डूबती उतराती
व्यथा और बढ़ती जाती
रात अधिक हो जाती काली |
सही राह नहीं दिखती
सलाह उचित नहीं लगती
सभी लगते दुश्मन से
जो भी उसका विरोध करते |
होना है जीवन का
अहम फैसला
जिस पर निर्भर
जीवन उसका |
पर है उम्र
ही कुछ ऐसी
जब बहकते कदम
नाम नहीं लेते ठहरने का |


12 टिप्‍पणियां:

  1. असमंजस के दोराहे पे खड़े व्यक्ति की मनोदशा का सटीक वर्णन किया है ! बहुत सुन्दर रचना ! बधाई !

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  3. Manodasha ka varnan bahut hi achha kiya hai aapne Assha ji..
    Shashakt lekhni ke liye badhayee.

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  4. उस की स्याही में
    डूबती उतराती
    व्यथा और बढ़ती जाती
    रात अधिक हो जाती काली
    bahut gahan bhavon ko shabdon ke madhyam se prakat kiya hai .badhai .

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  5. ये निराशा और असमंजस की स्थिति सबको इसी तरह की मनःस्थिति में ला देती है।

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  6. जब निराशा के काले बादल छाते है तो ऐसा ही होता है
    बेहतरीन रचना

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  7. अपनीं दुनिया में मदमस्त रहनें वाली युवा पीड़ी सपनें देखती है और उसे साकार करनें की में लग जाती है |युवावर्ग के मानस का सही आकलन
    करती रचनाँ|

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  8. पर है उम्र
    ही कुछ ऐसी
    जब बहकते कदम
    नाम नहीं लेते ठहरने का...

    yahi sach hai ..

    .

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  9. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार !
    युवावर्ग के मानस का सही आकलन
    .....बधाई एवं शुभकामनायें !

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