26 मार्च, 2011

जिज्ञासा मन की


वह जब भी अकेला होता है
सोचता पापा कब आएँगे
एक रात छत पर
तारों भरे अम्बर के नीचे
वही प्रश्न किया दादी से
कुछ क्षण मौन रहीं
फिर इंगित किया एक तारे को
तेरे पापा हैं वहाँ
अब तू जल्दी से सो जा |
वह अब रोज तारे देखता
मन ही मन प्रार्थना करता
पापा जल्दी आओ ना
मुझे अपने पास सुलाओ ना |
दादी का सिर सहलाना
हल्की हल्की थपकी देना
जाने कब नींद आ जाती
वह सपनों में खो जाता |
एक रात एक तारा टूटा
उसे नीचे आते देखा
सोचा पापा आते होंगे
पर वे नहीं आए |
सुबह हुई वे जब ना मिले
दादी से फिर प्रश्न किया
टूटा तारा गया कहाँ
पापा क्यूँ नहीं आए ?
दादी हौले से बोलीं
जब भी कोई तारा टूटता है
किसी को भगवान बुला लेता है
वही प्रश्न और वही उत्तर
पर हल खोज नहीं पाया
पापा का प्यार पाने के लिए
नन्हा सा दिल तरस गया |
जब दरवाजे पर दस्तक होती
या क़दमों की आहट होती
वह पापा की कल्पना करता
हर रात यही सोचता कि पापा आएंगे |
तारों को रोज देखता
जाने कब आँख लग जाती
और मन की जिज्ञासा
अधूरी ही रह जाती |

आशा

7 टिप्‍पणियां:

  1. बाल मन की सुलभ जिज्ञासा ...इसका समाधान दादी के पास भी नहीं ...वक्त के साथ ही शांत होगी यह जिज्ञासा ...भाव पूर्ण अभिव्यक्ति

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  2. तारों को रोज देखता
    जाने कब आँख लग जाती
    और मन की जिज्ञासा
    अधूरी ही रह जाती |

    बहुत मार्मिक भाव को आपने अभिव्यक्त किया है ..यह तो वही जानता है जिसने अपने पापा को खोया है जिसके लिए चाँद तारे की कल्पना ही सब कुछ है ..लेकिन हकीकत में पापा नहीं मिल सकते ...आपका आभार

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  3. बहुत मार्मिक भाव को आपने अभिव्यक्त किया है| धन्यवाद|

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  4. बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना ! मन को गहराई तक आंदोलित कर गयी ! उसका इंतज़ार कैसे खत्म होगा ! मन दर्द से भर गया ! सुन्दर अभिव्यक्ति ! बधाई स्वीकार करें !

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  5. बालसुलभ जिज्ञासा का जब समाधान नहीं होता है तो मन के प्रश्न मन में ही दबे रह जाते हैं |
    मार्मिक रचना |

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  6. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार
    .....भाव पूर्ण अभिव्यक्ति

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