18 अप्रैल, 2011

कई कंटक भी वहाँ होते हें


ना तो जानती थी
ना ही जानना चाहती थी
वह क्या चाहती थी
थी दुनिया से दूर बहुत
अपने में खोई रहती थी |
कल क्या खोया
ओर कल क्या होगा
तनिक भी न सोचती थी
वर्त्तमान में जीती थी |
जो भी देखती थी
पाने की लालसा रखती थी
धरती पर रह कर भी
चाँद पाना चाहती थी |
क्या सही है वह क्या गलत
उस तक की पहचान न थी
अपनी जिद्द को ही
सर्वोपरी मानती थी |
हर बात उसकी पूरी करना
संभव न हों पाता था
अगर कहा नहीं माना
चैन हराम होजाता था |
जब कठोर धरातल
पर कदम रखा
थी बिंदास
कुछ फिक्र न थी |
जिन्दगी इतनी भी
आसान न थी
गर्म हवा के झोंकों ने
उसे अन्दर तक हिला दिया |
उठापटक झगडे झंझट
अब रोज की बात हों गयी
तब ही वह समझ पाई
सहनशीलता क्या होती है |
जब मन पर अंकुश लगाया
बेहद बेबस ख़ुद को पाया
तभी वह जान पाई
माँ क्या कहना चाहती थी |
जिन्दगी ने रुख ऐसा बदला
पैरों के छाले भी
अब विचलित नहीं करते
ठोस धरा पर चलती है
क्यूँ की वह समझ गयी है
जीवन केवल फूलों की सेज नहीं
कई कंटक भी वहाँ होते हें |

आशा







5 टिप्‍पणियां:

  1. गर्म हवा के झोंकों ने
    उसे अन्दर तक हिला दिया |
    उठापटक झगडे झंझट
    अब रोज की बात हों गयी
    तब ही वह समझ पाई
    सहनशीलता क्या होती है |

    ज़िंदगी कि सच्चाई को कहती अच्छी रचना

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  2. जीवन केवल फूलों की सेज नहीं
    कई कंटक भी वहाँ होते हें ...
    yah bhi ek bahut badi sachchyee hai...bahut achchi lagi.

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  3. जीवन के दोनों पहलु का आनंद लेना चाहिए।

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  4. पैरों के छाले भी
    अब विचलित नहीं करते
    ठोस धरा पर चलती है
    क्यूँ की वह समझ गयी है
    जीवन केवल फूलों की सेज नहीं
    कई कंटक भी वहाँ होते हें |

    बहुत सुन्दर रचना ! यथार्थ से रू-ब-रू कराती ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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  5. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार !
    बहुत सुन्दर रचना ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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