नीलाम्बर में
प्रकृति के आँचल में
नीली छतरी के नीचे
यहाँ वहाँ उड़ते फिरते
थे स्वतंत्र फिर भी
भयाक्रांत रहते थे |
डर कर चौंकते थे
विस्फोटों से
कर्ण कटु आवाजों से
पंख फैला कर उड़ते
या उन्हें फड़फड़ाते
कभी आँखें मूँदे
अपने कोटर में
या पत्तियों की आड़ में दुबके
यही सोचते रहते थे
ना जाने कब परिवर्तन होगा
भय मुक्त वातावरण होगा
डर डर कर कब तक जियेंगे
कैसे ये दिन बीतेंगे |
जब सुखद वातावरण होगा
मौसम सुहावना होगा
बाधा मुक्त जीवन होगा
भय मुक्त हो
स्वतंत्र विचरण करेंगे |
प्रसन्न मन दाना चुगेंगे
स्वच्छ जल की तलाश में
मन चाहा सरोवर चुनेंगे
बेचैनी से दूर बहुत
वृक्षों पर बैठ
चहकेंगे चहचहाएंगे |
आशा
यही हाल इंसानों का भी हो रहा है ! पक्षियों की तरह वह भी आतंक के साये में भयाक्रांत रहता है ! आतंक को परिभाषित करती एक सार्थक रचना ! बधाई !
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब, गहराई से समझी बात की कविता आपको बधाई
जवाब देंहटाएंजब सुखद वातावरण होगा
जवाब देंहटाएंमौसम सुहावना होगा
बाधा मुक्त जीवन होगा
भय मुक्त हो
स्वतंत्र विचरण करेंगे |
प्रसन्न मन दाना चुगेंगे
स्वच्छ जल की तलाश में
मन चाहा सरोवर चुनेंगे
बेचैनी से दूर बहुत
वृक्षों पर बैठ
चहकेंगे चहचहाएंगे |... ameen, aisa hi ho
बहुत सुंदर उम्मीद से संजोयी है आपने अपनी रचना ..!!
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव ..!!
sakaraktmak bhaavpoorn rachna.aasha ki kiran liye Aasha ji ki sunder rachna.
जवाब देंहटाएंbahut khubsurat shabd chitran.......
जवाब देंहटाएंप्रसन्न मन दाना चुगेंगे
जवाब देंहटाएंस्वच्छ जल की तलाश में
मन चाहा सरोवर चुनेंगे
कितनी छोटी और कितनी बड़ी बात
sunder rachana.
जवाब देंहटाएंइस आतंक को हमने ही लाया है हम ही इसे मिटा सकते है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना आशाजी
आतंक को परिभाषित करती एक सार्थक रचना| बहुत सुन्दर|
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