02 जून, 2011

बेचैन पक्षी


नीलाम्बर में  
प्रकृति के आँचल में
नीली छतरी के नीचे
यहाँ वहाँ उड़ते फिरते 
थे स्वतंत्र फिर भी 
भयाक्रांत रहते थे |
डर कर  चौंकते थे 
विस्फोटों से 
कर्ण कटु आवाजों से
पंख फैला कर उड़ते 
या  उन्हें फड़फड़ाते
कभी आँखें मूँदे 
अपने कोटर में 
या पत्तियों की आड़ में दुबके 
यही  सोचते रहते थे
ना  जाने कब परिवर्तन होगा
भय मुक्त वातावरण होगा
डर  डर कर कब तक जियेंगे
कैसे ये दिन बीतेंगे |
जब  सुखद वातावरण होगा
मौसम सुहावना होगा
बाधा मुक्त जीवन होगा
भय मुक्त हो
स्वतंत्र विचरण करेंगे |
प्रसन्न मन  दाना चुगेंगे
स्वच्छ  जल की तलाश में
मन चाहा सरोवर चुनेंगे
बेचैनी  से दूर बहुत
वृक्षों पर बैठ
चहकेंगे  चहचहाएंगे |

आशा






10 टिप्‍पणियां:

  1. यही हाल इंसानों का भी हो रहा है ! पक्षियों की तरह वह भी आतंक के साये में भयाक्रांत रहता है ! आतंक को परिभाषित करती एक सार्थक रचना ! बधाई !

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  2. वाह बहुत खूब, गहराई से समझी बात की कविता आपको बधाई

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  3. जब सुखद वातावरण होगा
    मौसम सुहावना होगा
    बाधा मुक्त जीवन होगा
    भय मुक्त हो
    स्वतंत्र विचरण करेंगे |
    प्रसन्न मन दाना चुगेंगे
    स्वच्छ जल की तलाश में
    मन चाहा सरोवर चुनेंगे
    बेचैनी से दूर बहुत
    वृक्षों पर बैठ
    चहकेंगे चहचहाएंगे |... ameen, aisa hi ho

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  4. बहुत सुंदर उम्मीद से संजोयी है आपने अपनी रचना ..!!
    सुंदर भाव ..!!

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  5. sakaraktmak bhaavpoorn rachna.aasha ki kiran liye Aasha ji ki sunder rachna.

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  6. प्रसन्न मन दाना चुगेंगे
    स्वच्छ जल की तलाश में
    मन चाहा सरोवर चुनेंगे

    कितनी छोटी और कितनी बड़ी बात

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  7. इस आतंक को हमने ही लाया है हम ही इसे मिटा सकते है

    बहुत सुन्दर रचना आशाजी

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  8. आतंक को परिभाषित करती एक सार्थक रचना| बहुत सुन्दर|

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