03 जून, 2011

अनोखा जीवन मनुष्य का


जल में तैरतीं इठलातीं
रंग बिरंगी मछलियां
भोजन की तलाश में
यहाँ वहाँ जाती मछलियां |
तितलियाँ उड़ातीं फिरतीं
एक फूल से दूसरे पर
मकरंद का रस लेतीं
जब तक जीतीं
आकण्ठ डूबी रहतीं
मस्ती में |
पर मनुष्य ऐसा कहाँ
वह तो है उपज
विकसित मस्तिष्क की |
सोचता है कुछ
करता कुछ और है
कभी खाली नहीं रहता
खोजता रहता
नायाब तरीके धनोपार्जन के |
वे हों चाहे नैतिक या अनैतिक
बस वह तो यही जानता है
धन तो धन ही है
चाहे जैसे भी आए |
मानता हैजीवन का आधार उसे |
आकण्ठ डूब कर उसमें
अपने आप को
कृतकृत्य मानता है |
समाज भी ऐसे ही लोगों को
देता है मान प्रतिष्ठा
जो धनिक वर्ग से आते हैं
अपने को सर्वोपरी मानते हैं |
अंत समय आते ही
याद आता है ईश्वर
जिसे पहले कभी पूजा ही नहीं
यदि पूजा भी तो रस्म निभाई |
जो प्रेम दूसरों से किया
था केवल दस्तूर दुनिया का
अब कुछ भी न रहा |
मन में अवसाद लिए
दुनिया छोड़ चला
वह मछली सा या तितली सा
कभी ना बन पाया |
आशा








4 टिप्‍पणियां:

  1. वह मछली सा या तितली सा
    कभी ना बन पाया |

    मनुष्य लोकैषणा-वित्तैषणा-पुत्रैषणा का त्याग कर दे तो अवश्य ही मछली सा तितली सा निर्मल हृदय बन सकता है।

    आभार सुंदर कविता के भावों के लिए

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  2. सोचता है कुछ
    करता कुछ और है
    कभी खाली नहीं रहता
    खोजता रहता

    Beautiful....
    and true said human life is incredible and unique !!

    जवाब देंहटाएं
  3. दार्शनिक भावों से परिपूर्ण बहुत अच्छी रचना ! मायामोह में फँसा इंसान बस तीन तेरह की जुगत में ही लगा रहता है निर्मल निश्छल जीवन की कल्पना ही अब तो असंभव सी लगती है ! अच्छी प्रस्तुति ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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  4. manav insan hi ban jaye to jivan safal ho jae .
    sundar rachanaa .

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