01 जुलाई, 2011

जहां अपार शान्ति होती है

अपनी ४०० वी रचना आज ब्लॉग पर डाल रही हूँ |:-

ऊंचे पर्वतों से निकली
चंचल चपल धवल धाराएं
मार्ग अपना प्रशस्त किया
आगे बढ़ीं सरिता बनीं |
अलग अलग मार्गों से आईं
मंदाकिनी विलीन हो गयी
अलखनंदा में मिल गयी
नदिया में बिस्तार आया
वह और रमणीय हो गयी |
आसपास हरियाली थी
तेज बहती जल धारा थी
कल कल ध्वनि बहते जल की
खींच रही थी अपनी ओर |
घंटों बैठे उसे निहारते
नयनों में वे दृश्य समेटे
एक चित्र कार बैठा पत्थर पर
उकेरता उन्हें कैनवास पर |
जब दिन ढला शाम हुई
दी दस्तक चाँद ने रात में
चंचल किरणें खेलने लगी
जल धारा के साथ में |
खेलता चन्द्रमा लुका छिपी
पेड़ों से छन कर आती
घरोंदों में होती रौशनी से
था दृश्य ही ऐसा
कि मन की झोली में भर लिया |
अब जब भी मन उचटता है
कहीं दूर जाना चाहता है
आखें बंद करते ही
वे दृश्य उभरने लगते हैं
मन सुकून से भर जाता है |
सच कहा था चित्रकार नें
जहां अपार शान्ति होती है
मानसिक थकान नहीं होती
कुछ नया सर्जन होता है |

आशा

9 टिप्‍पणियां:

  1. प्रकृति के असीम सौन्दर्य को उकेरती रचना ....नदी की बहती स्वच्छ जलधारा सी प्रवाहमान हो रही है |
    मन को अपार शांति तो प्रकृति की ममतामयी गोद में ही मिल पाती है.....

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  2. आपकी मनोहारी रचना ने केदारनाथ बद्रीनाथ के सभी दृश्यों को आँखों के सामने सजीव कर दिया ! गंगा की अविरल धारा का मधुर कल कल स्वर कानों में गूँज गया ! इतनी सुन्दर रचना और ४०० रचनाओं के कीर्तिमान को बना लेने की उपलब्धि के लिए मेरी ढेर सारी हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं स्वीकार करें !

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  3. निसर्ग का संसर्ग होता ही ऐसा है

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  4. bahut sunder vivran prakrity ka......400 rachna puri hone par badhayee.

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  5. सुन्दर रचना! शांति के बारे में बात बिल्कुल सही है। 400वीं रचना के लिये बधाई!

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  6. प्राकृति के सोंदर्य को शब्दों में उतारती ४००वी कविता की बधाई ...

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