08 जुलाई, 2011

आज भी वही बात



तुम भूले वे वादे

जो रोज किया करते थे

बातें अनेक जानते थे

पर अनजान बने रहते थे |

तुम्हारी वादा खिलाफी

अनजान बने रहना

बिना बाट रूठे रहना

बहुत क्रोध दिलाता था |

फिर भी मन के

किसी कौने में

तुम्हारा अस्तित्व

ठहर गया था |

बिना बहस बिना तकरार

बहुत रिक्तता लगती थी

तुमसे बराबरी करने में

कुछ अधिक ही रस आता था |

वह स्नेह और बहस

अंग बन गए थे जीवन के

रिक्तता क्या होती है समझी

जब रास्ते अलग हुए |

बरसों बाद जब मिले

बातें करने की

उलाहना देने की

फिर से हुई इच्छा जाग्रत |

जब तुम कल पर अटके

कसमों वादों में उलझे

तब मैं भी उन झूठे बादों की

याद दिलाना ना भूली |

पर आज भी वही बात

ऐसा मैंने कब कहा था |

यह तो तुम्हारे,

दिमाग का फितूर था |

आशा

12 टिप्‍पणियां:

  1. यह तो तुम्हारे,

    दिमाग का फितूर था |...:)

    wah asha di....sach much aapke har kavita se alag soundhi si khushoo aati hai!

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  2. कसमों वादों में उलझे

    तब मैं भी उन झूठे बादों की

    याद दिलाना ना भूली |

    पर आज भी वही बात

    ऐसा मैंने कब कहा था |

    यह तो तुम्हारे,

    दिमाग का फितूर था |

    मन की सीधी बात सरल और सहज शब्दों व्यक्त कर दी है ...

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  3. ऐसा मैंने कब कहा था |

    यह तो तुम्हारे,

    दिमाग का फितूर था
    sahaj aur saral abhivyakti, badhai

    जवाब देंहटाएं
  4. इंसानी फितरतों को बड़ी खूबी से शब्दों में बाँधा है ! बहुत कुछ कने के बाद लोग यही कह कर परे हो जाते हैं !

    ऐसा मैंने कब कहा था |

    यह तो तुम्हारे,

    दिमाग का फितूर था |

    सुन्दर एवं सार्थक रचना ! बधाई !

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  5. तुमसे बराबरी करने में
    कुछ अधिक ही रस आता था ............

    निश्छल और सपाट अभिव्यक्ति| सुंदर शब्दांकन|

    बेहतर है मुक़ाबला करना

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  6. अपने भावो को बहुत सुंदरता से तराश कर अमूल्य रचना का रूप दिया है.

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