29 जुलाई, 2011

भय


हूँ भया क्रांत
और जान सांसत में
कोइ आहट नहीं
फिर भी घबराहट
तनी है भय की चादर
आस पास |
इससे मुक्त होने के लिए
अनेकों यत्न किये
पीछा फिर भी
न छूट पाया |
अब तो लगता है
यह है उपज मन की
दबे पाँव आ जाता है
छा जाता मन
मस्तिष्क पर |
कुछ करने की
इच्छा नहीं होती
फिर से लिपट जाता हूँ
उसी चादर में
भय के आगोश में |
ओर खोजता रहता हूँ
वास्तविकता उसकी
जानना चाहता हूँ
है सत्य क्या उसकी |

आशा



13 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति.
    अज्ञान से 'भय' उत्पन्न होता है.
    दैवी संपदा में प्रथम संपत्ति 'अभय' ही है.(भगवद्गीता गीता अध्याय १६)

    मेरे ब्लॉग पर आपके दर्शन से आनंद मिलता है.

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  2. अब तो लगता है
    यह है उपज मन की
    दबे पाँव आ जाता है
    छा जाता मन
    मस्तिष्क पर |
    कुछ करने की
    इच्छा नहीं होती

    हर जीवन का यथार्थ , सार्थक प्रस्तुति

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  3. हूँ भया क्रांत
    और जान सांसत में
    कोइ आहट नहीं
    फिर भी घबराहट
    तनी है भय की चादर
    आस पास

    ..bhay ka sundar yathrath chitran ke liye aabhar!

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  4. सुन्दर जज्बात बेहतरीन शब्दों का संसार

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  5. भय को अच्छे शब्दों में ढाला है ..अच्छी प्रस्तुति

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  6. अनजाने का भय सदा ही डराता है, विचलित करता है ! भय की आक्रामकता को बड़ी कुशलता से बखाना है ! सुन्दर रचना ! बधाई !

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  7. भय एक बार हावी हो जाये, तो चैन छीन लेता है, इस को तो आते ही दुत्कार देना बेहतर|

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  8. अच्छी रचना..बेहतरीन शब्दों का समावेश .......आभार

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  9. सुंदर भावप्रवण रचना. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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