16 सितंबर, 2011

नफ़रत



कई परतों में दबी आग
अनजाने में चिनगारी बनी
जाने कब शोले भड़के
सब जला कर राख कर गए |
फिर छोटी छोटी बातें
बदल गयी अफवाहों में
जैसे ही विस्तार पाया
वैमनस्य ने सिर उठाया |
दूरियां बढ़ने लगीं
भडकी नफ़रत की ज्वाला
यहाँ वहां इसी अलगाव का
विकृत रूप नज़र आया |
दी थी जिसने हवा
थी ताकत धन की वहाँ
वह पहले भी अप्रभावित था
बाद में बचा रहा |
गाज गिरी आम आदमी पर
वह अपने को न बचा सका
उस आग में झुलस गया
भव सागर ही छोड़ चला |

आशा





16 टिप्‍पणियां:

  1. आज की गंदी राजनीति की बिलकुल सही तस्वीर खींची है आपने रचना में ! दुःख यही है कि जनता भुलावे में आ जाती है और नेताओं की चालें ना समझ कर अपना नुकसान खुद ही कर बैठती है ! एक सार्थक रचना ! बधाई !

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  2. आज कल के हालात पर सार्थक अभिव्यक्ति| धन्यवाद|

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  3. वैमनस्य ने सिर उठाया |
    दूरियां बढ़ने लगीं
    भडकी नफ़रत की ज्वाला
    यहाँ वहां इसी अलगाव का
    विकृत रूप नज़र आया |

    यह एक कड़वा सच है...
    मन को उद्वेलित करने वाली बेहतरीन रचना....

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  4. बहुत खूब ... आग सब कुछ जला देती है ...

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  5. गहन भावो को समेटती खूबसूरत और संवेदनशील रचना|

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  6. बधाई! बहुत प्रभावशाली रचना आज की वीभत्स राजनीति को आइना दिखाती हुई !

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  7. आज के हालात का बहुत सटीक चित्रण...

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  9. वह पहले भी अप्रभावित था
    बाद में भी बचा रहा |

    एक दम सही बात

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  10. गाज गिरी आम आदमी पर
    वह अपने को न बचा सका
    उस आग में झुलस कर
    भव सागर ही छोड़ चला |


    -बहुत बढ़िया....

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