सारी बीती उन बातों में , कोई भी सार नहीं ,
सार्थक चर्चा करने का भी , कोई अधिकार नहीं |
प्रीत की रीत न निभा पाया , मुझे आश्चर्य नहीं ,
सोचा मैंने क्या व हुआ क्या, अब सरोकार नहीं |
वे रातें काली स्याह सी , जाने कहाँ खो गईं ,
बातें कैसे अधरों तक आईं , जलती आग हो गईं |
आती जाती वह दिख जाती , डूबती अवसाद में ,
ऐसा मैंने कुछ न किया था , जो थी ज्वाला उसमें |
आशा
सार्थक चर्चा करने का भी , कोई अधिकार नहीं |
प्रीत की रीत न निभा पाया , मुझे आश्चर्य नहीं ,
सोचा मैंने क्या व हुआ क्या, अब सरोकार नहीं |
वे रातें काली स्याह सी , जाने कहाँ खो गईं ,
बातें कैसे अधरों तक आईं , जलती आग हो गईं |
आती जाती वह दिख जाती , डूबती अवसाद में ,
ऐसा मैंने कुछ न किया था , जो थी ज्वाला उसमें |
आशा
सुन्दर रचना सुन्दर अभिव्यक्ति ,बधाई
जवाब देंहटाएं.
कई बार ऐसी स्थितियां हो जाती है जहाँ अवसाद का कोई कारण प्रत्यक्ष नजर नहीं आता!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना| बधाई|
जवाब देंहटाएंbahut acha likha hai aapne,achi rachna
जवाब देंहटाएं"प्रीत की रीत न निभा पाया ,मुझे आश्चर्य नहीं"
जवाब देंहटाएंअगर था यकीन की न निभा पाएगा वो रीत प्रेम की आपके संग |
तो क्यों नहीं कर दी अपने रास की लीला उसी वक़्त भंग ||
सुंदर शब्द |
आभार ||
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किसे जलाये - रावण को या राम को ???
सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसोचा मैंने क्या व हुआ क्या,अब सारोकार नहीं |
जवाब देंहटाएं:)
सारगर्भित पंक्तियाँ ! बहुत अच्छी लगीं ! सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंगहन अभिवयक्ति....
जवाब देंहटाएंमन का अवसाद कहीं गहरे ....दिल को चुभता सा है
जवाब देंहटाएंBehtarin rachna jo mujhe achhi lagi. kavita mein yahi bhav evm lay banaye rakhiyega
जवाब देंहटाएंभाव सागर को मथती रचना .
जवाब देंहटाएं