06 अक्तूबर, 2011

अवसाद में


सारी बीती उन बातों में , कोई भी सार नहीं ,
सार्थक चर्चा करने का भी , कोई अधिकार नहीं |
प्रीत की रीत न निभा पाया , मुझे आश्चर्य नहीं ,
सोचा मैंने क्या व हुआ क्या, अब सरोकार नहीं |
वे रातें काली स्याह सी , जाने कहाँ खो गईं ,
बातें कैसे अधरों तक आईं , जलती आग हो गईं |
आती जाती वह दिख जाती , डूबती अवसाद में ,
ऐसा मैंने कुछ न किया था , जो थी ज्वाला उसमें |

आशा


12 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर रचना सुन्दर अभिव्यक्ति ,बधाई

    .

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  2. कई बार ऐसी स्थितियां हो जाती है जहाँ अवसाद का कोई कारण प्रत्यक्ष नजर नहीं आता!

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  3. "प्रीत की रीत न निभा पाया ,मुझे आश्चर्य नहीं"

    अगर था यकीन की न निभा पाएगा वो रीत प्रेम की आपके संग |
    तो क्यों नहीं कर दी अपने रास की लीला उसी वक़्त भंग ||

    सुंदर शब्द |
    आभार ||
    _____________________________________________
    किसे जलाये - रावण को या राम को ???

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  4. सोचा मैंने क्या व हुआ क्या,अब सारोकार नहीं |

    :)

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  5. सारगर्भित पंक्तियाँ ! बहुत अच्छी लगीं ! सुन्दर रचना !

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  6. मन का अवसाद कहीं गहरे ....दिल को चुभता सा है

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