18 अक्टूबर, 2011

प्रकृति प्रेमी


ऊंची नीची पहाडियां
पगडंडी सकरी सी
मखमली फैली हरियाली
लगती उसे अपनी सी |
बचपन से ही था अकेला
एकांत प्रिय पर मृदुभाषी
भीड़ में भी था एकाकी
कल्पना उसकी साथी |
था गहरा लगाव उसे
प्रकृति की कृतियों से
मन मयूर नाच उठता था
उनके सामीप्य से |
हरी भरी वादियों में
कलकल करता झरना
ऊंचाई से नीचे गिरता
मन चंचल कर देता
जलचर थलचर भी कम न थे
नभचर का क्या कहना
लगता अद्भुद उन्हें देखना
उनमें ही खोए रहना |
था ऐसा प्रभावित उनसे
क्यूँ की वे थे भिन्न मानव से
घंटों गुजार देता वहाँ
तन्मय प्रकृति में रहता |
हर बार कुछ नया लिखता
देता विस्तार कल्पना को
रचनाएँ ऐसी होतीं
परिलक्षित करतीं प्रकृति को |
भावों की बहती निर्झरणी
यादों में बसती जाती
खाली एकांत क्षणों में
आँखों के समक्ष होती |
वह खुशी होती इतनी अमूल्य
जिसे व्यक्त करता
मन चाहे स्वरुप में
खो जाता फिर से प्रकृति में
आशा


17 टिप्‍पणियां:

  1. प्रकृति का सुन्दर नज़ारा जिसे हरेक का मन चाहे ... अच्छी प्रस्तुति

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  2. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार !
    ......प्रकृति का सुन्दर नज़ारा

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  3. आपकी हर रचना की तरह यह रचना भी बेमिसाल है !
    "माफ़ी"--बहुत दिनों से आपकी पोस्ट न पढ पाने के लिए ... !

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  4. बेहतरीन रचना।
    शब्‍दों का बेहतर तरीके से इस्‍तेमाल।

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  5. बहुत खूबसूरत रचना ! प्रकृति के सम्मोहन से विस्मित विमुग्ध करती अनुपम रचना ! बधाई !

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  6. बेहतरीन रचना...मेरे ब्लॉग पर भी पधारें .

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  7. प्रकृति प्रेम को समर्पित सुंदर कविता

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  8. प्रकृति प्रेम की सुन्दर छटा...बहुत सुंदर

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  9. सुन्दर चित्रण... सुन्दर गीत...
    सादर बधाई...

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  10. पूरी प्रकृति को ही समेट लिया है। बधाई।

    दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं,

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