11 दिसंबर, 2011

अनूठा सौंदर्य


बांह फैलाए दूर तलक
बर्फ से ढकीं हिमगिर चोटियाँ
लगती दमकने कंचन सी
पा आदित्य की रश्मियाँ |
दुर्गम मार्ग कच्चा पक्का
चल पाना तक सुगम नहीं
लगा ऊपर हाथ बढाते ही
होगा अर्श मुठ्ठी में |
जगह जगह जल रिसाव
ऊपर से नीचे बहना उसका
ले कर झरने का रूप अनूप
कल कल मधुर ध्वनि करता |
जलधाराएं मिलती जातीं
झील कई बनती जातीं
नयनाभिराम छबी उनकी
मन वहीँ बांधे रखतीं |
कभी सर्द हवा का झोंका
झझकोरता सिहरन भरता
हल्की सी धुप दिखाई देती
फिर बादलों मैं मुंह छिपाती |
एकाएक धुंध हो गयी
दोपहर में ही शाम हो गयी
अब न दीखता जल रिसाव
ना ही झील ना घाटियाँ |
बस थे बादल ही बादल
काले बादल भूरे बादल
खाई से ऊपर आते बादल
आपस में रेस लगाते बादल
मन में जगा एक अहसास
होते हैं पैर बादलों के भी
आगे बढ़ने के लिए
आपस में होड़ रखते हैं
आगे निकलने के लिए |
आशा

11 टिप्‍पणियां:

  1. एकाएक धुंध हो गयी
    दोपहर में ही शाम हो गयी
    jade ka khoobsurat chitr......

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  2. आपस में रेस लगाते बादल
    मन में जगा एक अहसास
    होते हैं पैर बादलों के भी
    बहुत सुन्दर अहसास, बहुत सुन्दर कल्पना... आभार

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  3. पर्वतीय सुरम्य स्थान का बहुत सुन्दर शब्द चित्र रचा है आपने रचना में ! ठिठुरन भरी बादली शामें नज़रों के आगे तैर गयीं ! बहुत बढ़िया रचना !

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  4. आपस में रेस लगाते बादल
    मन में जगा एक अहसास
    होते हैं पैर बादलों के भी

    सुन्दर भाव, आकर्षक रचना|

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  5. sundar bhavpoorn rachna samay mile kabhi to aaiyegaa meri post par aapka svagat hai
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

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  6. बहुत ही खुबसूरत ख्यालो से रची रचना.....

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  8. मौसम की खूबसूरत तस्‍वीर खींची है आपने शब्‍दों के माध्‍यम से।

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