01 मार्च, 2012

बहुत देर हो चुकी थी

खेलते बच्चे मेरे घर के सामने
करते शरारत शोर मचाते
पर भोले मन के
उनमें ही ईश्वर दीखता
बड़े नादाँ नजर आते
दिल के करीब आते जाते
निगाह पड़ी पालकों पर
दिखे उदास थके हारे
हर दम रहते व्यस्त
बच्चों के लालनपालन में
रहते इतनी उलझनों में
खुद को भी समय न दे पाते
फिर देखा एक और सत्य
बड़े होते ही उड़ने लगते
भूलते जाते बड़ों को
उनके प्रति कर्तव्यों को
कई बार विचार किया
फिर निश्चय किया
कोइ संतान ना चाहेंगे
बस यूँ ही खुश रह लेंगे
पर आज मैं और वह
जी रहे नीरस जीवन
ना चहलपहल ना रौनक घर में
आसपास फैली उदासी
अब लग रहा निर्णय गलत
जो पहले हमने लिया था
बच्चे तो हैं घर की रौनक
है आवश्यक उनका भी होना
घर है उनके बिना अधूरा
पर जब तक
आवश्यकता समझी
बहुत देर हो चुकी थी |
\आशा



18 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसे फैसले भी लिए जाते हैं ? विचारणीय रचना

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  2. सोचने में मजबूर करती रचना.....

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  3. सचमुच बच्चे घर की रौनक होते हैं, उनके बिना आँगन सूना है...
    मार्मिक रचना...

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  4. बहुत ही अच्छा लिखा है..... उम्दा प्रस्तुती!

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  5. शुक्रवारीय चर्चा मंच पर आपका स्वागत
    कर रही है आपकी रचना ||

    charchamanch.blogspot.com

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  6. बहुत ही सुन्दर,

    आप सभी सम्माननीय दोस्तों एवं दोस्तों के सभी दोस्तों से निवेदन है कि एक ब्लॉग सबका
    ( सामूहिक ब्लॉग) से खुद भी जुड़ें और अपने मित्रों को भी जोड़ें... शुक्रिया

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  7. आशा माँ.......बच्चे ही तो अपना ही संसार हैं .....
    बहुत ही सार्थक लिखा हैं आपने

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  8. बच्चों से ही तो जीवन जीवन सा लगता है ! सोचने के लिये प्रेरित करती एक सार्थक रचना ! बहुत सुन्दर !

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  9. सरल , सरस, सहज व मार्मिक कविता... सादर.
    होली की शुभकामनाएं

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  10. सुन्दर मार्मिक और हृदयस्पर्शी प्रस्तुति.

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  11. सटीक अभिव्यक्ति ... मौन कर गयी ये रचना ...

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