25 मार्च, 2012

प्रारब्ध

जगत एक मैदान खेल का 
हार जीत होती रहती 
जीतते जीतते कभी 
पराजय का मुंह देखते 
विपरीत स्थिति में कभी होते 
विजय का जश्न मनाते |
राजा को रंक होते देखा 
रंक कभी राजा होता 
विधि का विधान सुनिश्चित होता 
छूता कोई व्योम   की ऊंचाई 
किसी  के हाथ असफलता आई |
प्रयत्न है सफलता की कुंजी 
पर मिलेगा कितना
  होता सब  पूर्व नियोजित 
उसी ओर खिंचता  जाता
प्रारब्ध उसे जहां ले जाता 
कठपुतली सा नाचता 
भाग्य नचाने वाला होता
हो जाती बुद्धि भी वैसी 
जैसा ऊपर वाला चाहता|
कभी जीत का साथ देता 
कभी हार  अनुभव करवाता 
मिटाए नहीं मिटतीं 
लकीरें हाथ की
श्वासों की गति तीव्र होती 
एकाएक धीमी हो जाती 
कभी  थम भी जाती
जन्म से मृत्यु तक \
सब  पूर्व नियोजित होता 
हर सांस का हिसाब होता
उसका लेखा जोखा होता
शायद यही प्रारब्ध होता |
आशा






12 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!!!
    मिटाए नहीं मिटतीं
    लकीरें हाथ की
    श्वासों की गति तीव्र होती
    एकाएक धीमी हो जाती
    कभी थम भी जाती
    जन्म से मृत्यु तक \
    सब पूर्व नियोजित होता

    बहुत सुन्दर रचना आशा जी.
    सादर.

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  2. यह तुरंती क्षमा सहित-



    आशा सह विश्वास हैं, जीवन के अस्तंभ ।

    प्रभु के आगे व्यर्थ है, नश्वर मानव दंभ ।

    नश्वर मानव दंभ, सही दीदी फरमाती ।

    लो भी लिखा ललाट, पास वो किस्मत लाती ।

    कर ले लेकिन कर्म, मात्र तू प्रभु का पाशा ।

    समझो गीता मर्म, करो अच्छे की आशा ।।

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  3. बस कर्तव्य करते चलें ....बाक़ी सब प्रभु इच्छा ....
    सुंदर रचना ...

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  4. बेहतरीन रचना ,मुखर अभिव्यक्ति प्रशंशनीय है / शुभकामनायें जी /

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  5. जन्म से मृत्यु तक
    सब पूर्व नियोजित होता

    शाश्वत की प्रभावी अभिव्यक्ति....
    सादर।

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  6. जो पाना चाहे मिले नही
    जो सोचा नही वो मिल जाता है
    भाग्य कहो या कहो प्रारब्ध
    यही जिन्दगी कहलाता है।।।।।

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  7. अनुपम भाव संयोजन लिए ...बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  8. जीवन के यथार्थ से रू ब रू कराती एक सशक्त प्रस्तुति ! बहुत सुन्दर रचना ! बधाई एवं शुभकामनाएं !

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  9. अनुपम भाव लिए सुन्दर अभिव्यक्ति..आशा जी...

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  10. वाह ..सटीक शब्दों में अभिव्यक्ति ...बहुत खूब

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