हूँ एक अनगढ़ खिलोना
बनाया सवारा बुद्धि दी
किसी अज्ञात शक्ति ने
पर स्वतंत्र न होने दिया
बुद्धि जहाँ हांक ले गयी
उस ओर ही खिंचता गया
राह की बाधाओं से
पार पाने के लिए
सफलता और असफलताओं के
बीच ही झूलता रहा
जीवन के रंग उन्हें मान
बढता जा रहा हूँ
अंधकार में डूबा
उन्हें नहीं मानता
प्रकाश की खोज में
अग्रसर होना चाहता
है वह कौन
जो संचालित करती मुझे
उसे ही खोज रहा हूँ
हर कठिन वार सह कर भी
बचता रहा हर बार
जीना चाहता हूँ
क्यूं कि हूँ मनुष्य
वही बना रहना चाहता हूँ |
आशा
क्यूं कि हूँ मनुष्य
जवाब देंहटाएंवही बना रहना चाहता हूँ |......kya baat hai.....
जो संचालित करती मुझे
जवाब देंहटाएंउसे ही खोज रहा हूँ
हर कठिन वार सह कर भी
बचता रहा हर बार
जीना चाहता हूँ
क्यूं कि हूँ मनुष्य
वही बना रहना चाहता हूँ |....बहुत सुन्दर ...सकारात्मक भाव लिए सुन्दर रचना..
सवतंत्रता खुद ही लेनी होगी ... इस शक्ति का आदर भी तभी होगा ...
जवाब देंहटाएं'क्यूं कि हूँ मनुष्य'
जवाब देंहटाएंवाह!
bhaut khub..... umda prstuti....
जवाब देंहटाएंbehtarin prastuti
जवाब देंहटाएंअतिसुन्दर रचना....!!!
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंumda prstuti....
जवाब देंहटाएंक्यूं कि हूँ मनुष्य
जवाब देंहटाएंवही बना रहना चाहता हूँ |
बहुत ही सात्विक भाव हैं आज की रचना में ! यही अपेक्षित भी है कि मनुष्य ही बने रहें तभी यह मानव जीवन सार्थक हो सकेगा ! सुन्दर रचना !