बेचारे बगदी लाल जी
,करन चले व्यापार |
महंगाई की मार का
,सह न पाए वार ||
है लाभ क्या न जानते
,झुझलाते पा हार |
होते विचलित हानि से
,जीवन लगता भार ||
किसी सलाह से बचते ,मन मे उठता ज्वार |
अनजाने बने रहते ,जब
भी होता वार ||
दखल देते बेहिसाब और
बदलते भेष |
अवमानना से अपनी ,उनको लगती ठेस||
गणित हानि लाभ का
,सब विधि के आधीन |
धनिक बनने की चाह
में ,इस पर गौर न कीन्ह ||
खड़ा हुआ सच सामने
,धूमिल कल की याद |
मीठी यादें आज की
,भविश्य की सौगात ||
आशा
वाह आदरणीया आशा जी क्या बात है सत्य है, निम्न ज्ञान सदैव परेशानी में डालता है सुन्दर अति सुन्दर
जवाब देंहटाएंवाह आशा जी .....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
कुछ अलग हट के.....
सादर
अनु
bahut hi badhia poem hain
जवाब देंहटाएंthanks
सचमुच महंगाई की मार का ,कोई भी सह न पाए वार फिर बगदी लाल जी कैसे सह पाते... बढ़िया कविता आशाजी... आभार
जवाब देंहटाएंप्रशंशनीय लेखन...आभार
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रचना |
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट:- ओ कलम !!
बहुत बढ़िया ...
जवाब देंहटाएंAam Aadmi ki Rochak vyakhya..
जवाब देंहटाएंAbhaar !!
बेचारे बगदी लाल जी को बहुत भुगतना पड़ गया ! क्या करें मँहगाई का वार होता ही इतना करारा है ! दोहों के माध्यम से सुन्दर चित्रण ! बहुत बढ़िया !
जवाब देंहटाएंवाह ... बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंओहो ..आज का कटु सत्य
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