11 अक्टूबर, 2012

बेचारे बगदी लाल जी


बेचारे बगदी लाल जी ,करन चले व्यापार |
महंगाई की मार का ,सह न पाए वार ||

है लाभ क्या न जानते ,झुझलाते पा हार |
होते विचलित हानि से ,जीवन लगता भार ||

किसी   सलाह से बचते ,मन मे उठता ज्वार |
अनजाने बने रहते ,जब भी  होता वार ||

दखल देते बेहिसाब और बदलते भेष |
अवमानना से अपनी ,उनको  लगती ठेस||

गणित हानि लाभ का ,सब विधि के आधीन |
धनिक बनने की चाह में ,इस पर गौर न कीन्ह ||

खड़ा हुआ सच सामने ,धूमिल कल की याद |
मीठी यादें आज की ,भविश्य की सौगात ||
आशा

12 टिप्‍पणियां:

  1. वाह आदरणीया आशा जी क्या बात है सत्य है, निम्न ज्ञान सदैव परेशानी में डालता है सुन्दर अति सुन्दर

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  2. वाह आशा जी .....
    बहुत सुन्दर...
    कुछ अलग हट के.....

    सादर
    अनु

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  3. सचमुच महंगाई की मार का ,कोई भी सह न पाए वार फिर बगदी लाल जी कैसे सह पाते... बढ़िया कविता आशाजी... आभार

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  4. बेचारे बगदी लाल जी को बहुत भुगतना पड़ गया ! क्या करें मँहगाई का वार होता ही इतना करारा है ! दोहों के माध्यम से सुन्दर चित्रण ! बहुत बढ़िया !

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  5. वाह ... बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति।

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