06 मई, 2013

चिड़िया

एक चिड़िया नन्हीं सी 
टुवी टुवी करती
प्रसंनमना उड़ती फिरती 
डालियों पर 
एक से दूसरी पर जाती 
लेती आनंद झूलने का 
एकाएक राह भूली 
झांका खिड़की से 
भ्रमित चकित 
कक्ष में आई 
चारो ओर दृष्टिपात करती
पहले यहाँ वहां बैठी 
सोच रही  वह कहाँ आ गयी 
दर्पण देख रुकी 
टुवी टुवी करती
मारी चोंच उस पर 
आहत हो कुछ ठहरी
फिर वार पर वार किये 
मन ने सोचा 
लगता कोइ दुश्मन 
जो उसे डराना चाहता 
पर यह था केवल भ्रम
उसके अपने मन का 
यूं ही आहत हुई 
जान नहीं पाई 
कोई अन्य न था 
था उसका ही अक्स 
जिससे वह जूझ  रही थी 
बिना बात यूं ही 
भयभीत हो रही थी |
आशा




14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक और सत्य कहती रचना ....!!शीशे में भी हम अपने मन के भाव ही देख पाते हैं ....

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  2. ऐसे ही भ्रमों मे मे पड़ा रहना -यही संसार है!

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  3. इसी तरह हम भी अनजान भ्रमों से भयग्रस्त रहते हैं ! सार्थक प्रस्तुति ! बहुत सुंदर !

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  4. शायद हम भी इसी तरह के कई भ्रमों से घिरे है,जिन्हें हम चाह के भी पहचान नही पाते.

    आग्रह मेरे ब्लॉग पर आकर मुझे धन्य बनाए.
    मेरी नयी रचना "अधूरे शब्द"

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  5. कभी कभी इंसान भी अपने आप से ऐसे ही डर जाता है ...
    सच लिखा है बहत ही ...

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  6. होते हैं अक्सर ऐसे भ्रम... सार्थक रचना... आभार

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  7. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार ७/५ १३ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका वहां स्वागत है ।

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  8. बहुत ही बेहतरीन और सार्थक रचना.

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  9. बहुत बढ़िया ,सुन्दर अभिव्यक्ति
    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    latest post'वनफूल'

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  10. वाह ...बहुत ही अनुपम भाव

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  11. बहुत खूब


    पर अब ये छोटी चिड़ियाँ तो लुप्त सी होती जा रही हैं

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