25 अप्रैल, 2014

वे न आये



अटखेलियाँ लहरों से
ताका झांकी पेड़ों से
तारों से गलबहियां होती
चांदनी चंचल बहकती |
तब भी मन नहीं भरता
सोचता किसे चुने
झील नदी या ताल
या समुंदर की लहरों को |
जुही रात में महकती
नवोढ़ा श्रृंगार करती
राह में पलकें बिछाए
पर होती निगाहें रीती |
चाँद तो आया भी
पर वे न आये
रात बीती सारी
यूं ही राह देखते |
प्रश्न उठा मन में
 चाँद क्यूं लगता अपना
वे रहे पराये
उसे अपना न पाए |
आशा

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुती...

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  2. उत्तर
    1. पुस्तकों का पूरा सेट कहाँ मिल्पाएगा और कितने रूपए में ?
      आशा

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (26-04-2014) को ""मन की बात" (चर्चा मंच-1594) (चर्चा मंच-1587) पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. अनुराग की अनुपम भावना से ओतप्रोत बहुत ही सुंदर प्रस्तुति ! बहुत बढ़िया !

    जवाब देंहटाएं

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