यादें गहराईं
तेरे जाने के बाद
तुझे जान कर
अहसास ऐसा हुआ
अपने अधिक ही निकट पाया
यही सामीप्य
इसकी छुअन अभी भी
रोम रोम में बसी है
यादों की धरोहर जान
जिसे बड़े जतन से
बहुत सहेज कर रखा है
पर न जाने क्यूं
रिक्तता हावी हो जाती है
असहज होने लगता हूँ
उदासी की चादर ओढ़
पर्यंक का आश्रय लेता हूँ
यादों का पिटारा खोलता हूँ
उन मधुर पलों को
जीने के लिए
कठिन प्रयत्न करता हूँ
सफलता पाते ही
पुनः जी उठता हूँ
तेरे सान्निध्य की यादों में |
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअत्यंत भावपूर्ण एवं सुंदर रचना ! बहुत बढ़िया !
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद |
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (28-04-2014) को "मुस्कुराती मदिर मन में मेंहदी" (चर्चा मंच-1596) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सूचना हेतु धन्यवाद सर |
हटाएंबहुत सुंदर .....
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद सर |
हटाएंबहुत ही सुन्दर और प्रभावशाली रचना...
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद संजय |
हटाएंबेहतरीन व प्रभावशाली ...
जवाब देंहटाएंजीने के लिए
कठिन प्रयत्न करता हूँ
सफलता पाते ही
पुनः जी उठता हूँ
तेरे सान्निध्य की यादों में |
धन्यवाद टिप्पणी के लिए मुकेश जी |
हटाएंवाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनु जी |
हटाएंसूचना हेतु धन्यवाद सर |
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