06 दिसंबर, 2014

आदत सी हो गई है



रंग जिन्दगी के
सम्हलने नहीं देते
 बवाक हो जाते
प्यार के अफसाने
जब शाम उतर आती
आँगन के कौने में
रहा था  धूप से
 कभी गहरा नाता
व्यस्तता का आवरण
तब लगता था अच्छा
पर  अब सह नहीं पाती
रंगों की चहल कदमी
रहती सदा तलाश
तेरी छत्र छाया की
तभी तो सुरमई शाम
लगती बहुत प्यारी
तन्हाँ आँगन के कोने में
मूंज की खाट पर
बैठ कर बुनना और
गिरते फंदों कोउठा
 सलाई पर चढाना 
अपनी कृति पर खुश होना 
हलकी सी आहट पर 
झांक तुम्हारी राह देखना
अब आदत सी हो गई है
इस तरह जीने की
समय बिताने की |
आशा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Your reply here: