रातें कई बीत गईं
पलकें न झपकीं क्षण
भर को
निहारती रहीं उन
वीथियों को
शमा के उजाले में
|
कब रात्रि से
सुबह मिलती
जान नहीं पाती
बस जस तस
जीवन खिचता जाता
एक बोझ सा लगता |
सोचती रहती
कोई उपाय तो होगा
बोझ कम करने का
उलझनें सांझा
करने का |
मुझसे मेरी
समस्याएँ
बाँट लेते यदि तुम आते
बोझ हल्का
हो जाता
सुखद जीवन हो
जाता |
तुम निष्ठुर
निकले
मुझे समझ न पाए
मैं दूर तक देखती
रही
पर तुम न आये |
आशा
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