04 जून, 2015

एक गणिका (सत्य कथा )

 
एक शाम घर से निकली 
मन था बाहर घूमने का 
सज सवार बाहर आई 
सौन्दर्य में कमीं न थी |
पार्क भी दूर न था 
वहीं विचरण अच्छा लगता था 
उसी राह चल पड़ी
अनहोनी की कल्पना न थी |
एकाएक कार रुकी एक
दो हाथ  निकले बाहर
चील ने झपट्टा मारा 
और वह कार के अन्दर थी |
फिर ऐसा नंगा नाच
 मानवता का ह्रास
शायद ही किसी ने देखा होगा 
अस्मत लुटी दामन तारतार हो गया|
अति तब हो गई जब
लुटी पिटी बेहाल वह
 सड़क पर फेंकी  गई
रोई चिल्लाई
मदद की गुहार लगाई |
पर संवेदना शून्य लोग 
नजर अंदाज कर उसे आगे बढ़ गए 
वह  सिसकती रह गई 
मदद की गुहार व्यर्थ गई |
लहूलुहान बदहाल  वह 
जैसे तैसे घर पहुंची 
यहाँ भी दरवाजे बंद हुए 
समाज के भय से उसके लिए |
आंसू तक बहना भूल गए 
फटे टार टार हुए कपड़ों में 
समझ न पाई कहाँ जाए 
किस दर को अपना ठौर बनाए |
संज्ञा शून्य  सी हुई 
अनजानी राह पर चल पड़ी
अब केवल अन्धकार था 
कोई भी अपना नहीं साथ था |
जब भी  नज़रे उस पर पड़तीं
बड़ी हिकारत से देखतीं 
खून का घूँट पी कर रह जाती 
आखिर क्या था कसूर उसका?
कहने को वह दुर्गा थी 
सक्षम थी पर अब अक्षम 
किसी ने न जाना 
उसकी समस्या क्या थी |
सबने नज़रों से गिरा दिया
जहां कोई भी जाना  नहीं चाहता
उस कोठे तक  उसे पहुंचा दिया 
वह रह गई एक गणिका होकर |
आशा









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