जाने क्या बात हुई
उदासी ने ली अंगड़ाई
सबब क्या था
उसके आने का
वह राज क्या था
मन की बेचैनी का
खोज न पाई
चर्चे तेरे अक्सर
हुआ करते थे
कभी कम कभी बेशुमार
हुआ करते थे
ऐसा तो कुछ भी न था
जो चोटिल कर जाता
मन को ठेस पहुंचाता
तब भी मुठ्ठी भर खुशी
दामन में समेत न पाई
अस्ताचल को जाता सूरज
जब खोता प्रखरता अपनी
थका हारा बेचारा
पीतल की थाली सा दीखता
बादलों में मुंह छिपाता
आसमान सुनहरा हो जाता
जाने क्या क्या याद दिलाता
उदासी शाम के धुधलके सी
गहराई मन पर छाई
रंग उसका फीका न होता
पुरानी किताब के पन्नों सा
छूते ही बिखरने लगता
कैसे समेटें उन लम्हों को
दिल पर लिखे गए शब्दों को
ऐ मुठ्ठी भर खुशी
तुझे कहाँ खोजा जाए
परहेज़ उदासी से हो पाए |
आशा
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