मन रे तू है कितना भोला
खुद में ही खोया रहता  
जग  में क्या कुछ हो रहा 
उससे  कोई ना नाता रखता  
भ्रमर पुष्प पर मंडराता 
गीत प्रेम के गाता
हर बार नया पुष्प होता
दुनिया की रीत निभाता
हर बार नया पुष्प होता
दुनिया की रीत निभाता
तू भी गुनगुनाता है 
उन गीतों को दोहराता है 
खिले हुए पुष्पों से
क्या  कभी रहा तेरा नाता ?
अपना सुख दुःख 
तूने किस किस से बांटा ?
यही कला ना सीखी
तभी रहा सदा ही घाटा
यही कला ना सीखी
तभी रहा सदा ही घाटा
जब किसी से सांझा करेगा 
विचारों का मंथन करेगा 
बोझ तेरा हल्का होगा 
घुटन का अनुभव न होगा 
अंतर्मुखी हो कर जीना भी 
क्या कोई  जीना है 
रहो बिंदास प्रसन्न वदन 
है  मूल मन्त्र जीवंत जीवन का |
 
 
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